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प्रस्तावना
में काटती हैं-प्राणियोंको संतप्त करती हैं, तथा उनके विषकी विनाशक कोई औषधि भी नहीं है। इसके अतिरिक्त उनके काटनेपर इस लोक और पर लोक दोनोंमें ही प्राणियोंको संताप होता है । दूसरे, वे उन महान् ऋषियोंको१ भी काटती हैं-मोहित करती हैं- कि जिनसे सर्प भी भयभीत रहा करते हैं । अब शृंगारशतकका यह श्लोक भी देखिये
अपसर सखे दूरादस्मात् कटाक्ष-विषानलात् प्रकृतिविषमाद्योषित्साद्विलास-फणाभृतः । इतरफणिना दष्टः शक्यश्चिकित्सितुमौषधैश्चतुरवनिता-भोगिग्रस्तं त्यजन्ति हि मन्त्रिणः ॥५२॥
इसमें भी स्त्रीको सर्पके समान बतलाकर उसे स्वभावतः कुटिल, कटाक्षरूप विषाग्निकी ज्वालासे संयुक्त और विलासरूप फणको धारण करनेवाली कहा है । साथमें यह भी बतलाया है कि लोक प्रसिद्ध सर्पके द्वारा काटे गये प्राणीकी औषधियोंके द्वारा चिकित्सा भी की जा सकती है,परन्तु चतुर स्त्रीरूप सर्पके द्वारा काटे गये प्राणीको असाध्य समझकर मान्त्रिक जन भी छोड देते हैं । इसलिए हे मित्र ! तू उक्त स्त्रीरूप सर्पसे दूर रह ।
श्लोक १२९ में स्त्रियोंको सरोवरके समान निर्दिष्ट करके उन्हे हास्यसे निर्मल एवं तरंगोंके समान अस्थिर सुखको उत्पन्न करनेवाले जलसे परिपूर्ण तथा मुखरूप कमलोंसे बाह्यमें रमणीय बतलाया है । साथ ही यह भी सूचना कर दी है कि वहां पानी पीनेकी इच्छा करनेवाले बहुत-से अज्ञानी जन किनारेपर ही भयानक विषयोंरूप मगरमत्स्योंके ग्रास बनकर नष्ट हो चुके हैं और फिर वहांसे नहीं निकले हैं। यह आशय प्रायः शृंगार-शतकके निम्न श्लोकमें देखा जाता है
१, विश्वामित्र-पराशरप्रभृतयो वाताम्बु-पर्णाशनास्तेपि स्त्रीमुख-पङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यः प्लवेत् सागरे ॥g .श. ८..