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आत्मानुशासनम्
[श्लो० ७भन्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाद् भृशं भीतवान्।
सौख्येषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विवार्य स्फुटम् । बुधनुति: वुधानां बुधर्वा नतिर्नमनम् । अनुत्सेकोऽनुद्धत:2 । लोकज्ञता सचराचरजगत्परिज्ञानम् । मृदुता सेव्यता। अस्पृहा निस्पृहता । अन्ये च उक्तेभ्योऽपरेऽपि परमकरुणादयः। सतां हेयोपादेयविवेकपरिज्ञानार्थिनाम् ॥६॥ यद्येवंविधः शास्ता शिष्यस्तहि कीदृशो भवतीत्याह-भव्य इत्यादि। विमृशन् पर्यालोचयन् । इस लोकसम्बन्धी इच्छाओंसे रहित है, तथा जिसमें और भी आचार्य पदके योग्य गुण विद्यमान हैं; वही हेयोपादेय-विवेकज्ञानके अभिलाषी शिष्योंका गुरु हो सकता है ॥६॥ जो भव्य है; मेरे लिये हितकारक मार्ग कौनसा है, इसका विचार करनेवाला है; दुखसे अत्यन्त डरा हुआ है, यथार्थ सुखका अभिलाषी है, श्रवण आदिरूप बुद्धिविभवसे सम्पन्न है, तथा उपदेशको सुनकर और उसके विषयमें स्पष्टतासे विचार करके जो युक्ति व आगमसे सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्मको ग्रहण करनेवाला है; ऐसा दुराग्रहसे रहित शिष्य धर्मकथाके सुननेमें अधिकारी माना गया है। विशेषार्थ-यहां धर्मोपदेशके सुननेका अधिकारी कौन है, इस प्रकार श्रोताके गुणोंका विचार करते हुए सवसे पहिले यह बतलाया है कि भव्य होना चाहिये । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको प्राप्त करके भविष्यमें अनन्तचतुष्टयस्वरूपसे परिणत होनेवाला है वह भव्य कहलाता है। यदि श्रोता इस. प्रकारका भव्य नहीं है तो उसे उपदेश देना व्यर्थ ही होगा। कारण. कि जिस प्रकार पानीके सींचनेसे मिट्टी गीलेपनको प्राप्त हो सकती है उस प्रकार पत्थर नहीं हो सकता, अथवा जिस प्रकार. नवीन घटके ऊपर जलबिन्दुओंके डालनेपर वह उन्हें आत्मसात् कर लेता है उस प्रकार घी आदिसे चिक्कणताको प्राप्त हुआ घट उन्हें आत्मसात् नहीं कर सकता है-वे इधर उधर विखर कर नीचे गिर जाती हैं। ठीक यही स्थिति उस श्रोताकी भी है-जिस श्रोताका हृदय सरल है वह सदुपदेशको ग्रहण करके तदनुसार प्रवृत्ति करने में प्रयत्नशील होता है,
1 म (नि. सा.) झीतिमान् । 2 ज अनुद्धताः ।