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गुरो: स्वरूपम्
श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोध ने परिणतिरुरूद्योगो मार्गप्रवर्तन सद्विधौ । बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुताऽस्पृहा यतिपति गुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ॥६॥
प्रतिभापरः आशु उत्तरप्रतिपत्तिः प्रतिभा सा परा उत्कृप्टा यस्य । प्रशमवान् प्रकृप्टोपशमयुक्त: । प्रागेव दृष्टोतरः परपर्यनयोगात् पूर्व मेत्र अवधारितोत्तरः यद्ययम् एवंविधं पर्यनुयोगं. करिप्यति तदा एवं विधम् उत्तरं दास्यामीति । प्रायःप्रश्नतहः प्रचुरपश्नसहः । प्रभुः आदेयरूपः। परमदोहारी पचित्तानुरागजनक: परचित्तोपलक्षको वा । परानिन्दया परेषां दोपाभावनया यथावद्वस्तुस्वरूपमेव निरूपयन् धर्मकथां ब्रूयात् इत्यर्थः । गणी आचार्यः । गुणनिधिः अनेकगुणनिधान: । प्रस्पष्टेत्यादि । प्रकर्षण स्पष्टानि व्यक्तानि मृष्टानि श्रोत्रमन:प्रियाणि अक्षराणि यस्य ॥५॥ श्रुतमित्यादि । श्रुतम् अविकलं परिपूर्ण निःसंदिग्धं वा यस्मिन् स गुरुः उपदेष्टा । तथा शुद्धा निरवद्या वृत्तिः चारित्रं मनोवाक्कायप्रवृत्तिर्वा । परप्रतिबोधने परिणतिः परिणामः प्रवीणता वा । उरु: महान् उद्योगः उद्यमः । क्वेत्याह मार्गेत्यादि । मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं प्रवर्तयति इति. मार्गप्रवर्तन: स चासौ सद्विधिश्च सन् शोभनो मायादिरहितो विधि: अनुष्ठानं यस्मिन् ।
अर्थात् न तो उनसे घबडाता है और न उतेजित ही होता है, श्रोताओंके ऊपर प्रभाव डालनेवाला है, उनके (श्रोताओंके) मनको आकर्षित करनेवाला अथवा उनके मनोगत भावको जाननेवाला है, तथा उत्तमोत्तम अनेक गुणोंका स्थानभूत है; ऐसा संघका स्वामी आचार्य दूसरोंको निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दोंमें धर्मोपदेश देनेका अधिकारी होता है ॥५॥ जिसके परिपूर्ण श्रुत है अर्थात् जो समस्त सिद्धान्तका जानकार है; जिसका चारित्र अथवा मन, वचन व कायकी प्रवृत्ति पवित्र है; जो दूसरोंको प्रतिबोधित करनेमें प्रवीण है, मोक्षमार्गके प्रचाररूप समीचीन कार्यमें अतिशय प्रयत्नशील है, जिसकी अन्य विद्वान् स्तुति करते हैं तथा जो स्वयं भी विशिष्ट विद्वानोंकी प्रशंसा एवं उन्हें नमस्कार आदि करता है, जो अभिमानसे रहित है, लोक और लोकमर्यादाका जानकार है, सरल परिणामी है,