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आत्मानुशासनम्
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[श्लो० ५
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया
ब्रयाद्धर्मकथां गणी गणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥५॥ असत्प्रलापिनः । वथोत्थिता: विफलाटोपा: विफलप्रवृत्तयो वा । अन्तरार्द्राः सकरुणा: सजलाश्च । अभ्युज्जिहीर्षव: अभ्युद्धर्तुमिच्छवः।।४।। तहि कीदृग्गुणैः युक्त: उपदेष्टा भवतीति प्रश्ने 'प्राज्ञः' इत्यादि श्लोकद्वयम् आह-- प्रज्ञा त्रिकालार्थविषया प्रतिपत्तिः । उक्तं च-'मतिरप्राप्तिविषया बुद्धिः सांप्रतदर्शिनी अतीतार्था स्मृतिज्ञेया प्रज्ञा कालत्रयार्थगा । 'सा अस्य अस्तीति प्राज्ञः । 'प्रज्ञाश्रद्धार्चावृत्तिभ्यो ण: '(जैनेन्द्रम्. ४।१।२८) इति णः प्राप्तेत्यादि । प्राप्त परिज्ञातं समस्तशास्त्राणां हृदयम् अन्तस्तत्त्वं पेन । प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रव्यक्ता परिस्फुटा लोकस्य जगतः प्राणिगणस्य वा स्थिति: स्थानं व्यवहारश्च यस्य । प्रास्ताशः प्रकर्षण अस्ता स्फेटिता आशा लाभपूजादिवाञ्छा येन । चाहते हैं ऐसे वे मनुष्य और मेघ दोनों ही दुर्लभ हैं । विशेषार्थ- जो मेघ गरजते तो हैं, किंतु जलहीन होनेसे बरसते नहीं हैं, वे सरलतासे पाये जाते हैं। परन्तु जो जलसे परिपूर्ण होकर वर्षा करनेके उन्मुख हैं, वे दुर्लभ ही होते हैं। ठीक इसी प्रकारसे जो उपदेशक अर्थहीन अथवा अनर्थकारी उपदेश करते हैं वे तो अधिक मात्रामें प्राप्त होते हैं किंतु जो स्वयं मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होकर दयार्द्रचित्त होते हुए अन्य उन्मार्गगामी प्राणियोंको उससे उद्धार करनेवाले सदुपदेशको करते हैं वे कठिनतासे ही प्राप्त होते हैं। ऐसे ही उपदेशकोंका प्रयत्न सफल होता है ॥४॥ जो त्रिकालवर्ती पदार्थोंको विषय करनेवाली प्रज्ञासे सहित है, समस्त शास्त्रोंके रहस्यको जान चुका है, लोकव्यवहारसे परिचित है, अर्थलाभ और पूजा-प्रतिष्ठा आदिकी इच्छासे रहित है, नवीन नवीन कल्पनाकी शक्तिरूप अथवा शीघ्र उत्तर देनेकी योग्यतारूप उत्कृष्ट प्रतिभासे सम्पन्न है, शान्त है, प्रश्न करनेके पूर्व में ही वैसे प्रश्नके उपस्थित होनेकी सम्भावनासे उसके उत्तरको देख चुका है, प्रायः अनेक प्रकारके प्रश्नोंके उपस्थित होनेपर उनको सहन करनेवाला है