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श्रोतुर्लक्षणम् धर्म शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थित
गृहन् धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७॥ भृशम् अतिशयेन । श्रवणेत्यादि । श्रवणादयो बुद्धेविया: गुगविभूतयः यस्य । शुभूपा श्रवणग्रह गधार पविज्ञानोहापोहतर वाभिनिवेशा हि बुद्धिगुणाः।शर्मकरं सुखजनकम्।दया किन्तु जिसका हृदय कठोर है उसके ऊपर सदुपदेशका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। अतएव सबसे पहिले उसका भव्य होना आवश्यक है । दूसरी विशेषता उसकी यह निर्दिष्ट की गई है कि उसे हिताहितका विवेक होना चाहिये । कारण कि मेरा आत्मकल्याण किस प्रकारसे हो सकता है, यह विचार यदि श्रोताके रहता है तब तो वह सदुपदेशको सुनकर तदनुसार कल्याणजार्गमें चलनेके लिये उद्यत हो सकता है । परन्तु यदि उसे आत्महितको चिन्ता अथवा हित और अहितका विवेक ही नहीं है तो वह मोक्षमार्गमें प्रवृत्त नहीं हो सकेगा। किन्तु जब और जिस प्रकारका अनुकूल या प्रतिकूल उपदेश उसे प्राप्त होगा तदनुसार वह अस्थिरतासे आचरण करता रहेगा । इस प्रकारसे वह दुखी ही बना रहेगा। इसीलिये उसमें आत्महितका विचार और उसके परीक्षणकी योग्यता अवश्य होनी चाहिये । इसी प्रकार उसे दुखका भय और सुखकी अभिलाषा भी होनी चाहिये, अन्यथा यदि उसे दुखसे किसी प्रकारका भय नहीं है या सुखकी अभिलाषा नहीं है तो फिर भला वह दुखको दूर करनेवाले सुखके मार्ग में प्रवृत्त ही क्यो होगा? नहीं होगा । अतएव उसे दुखसे भयभीत और सुखाभिलाषी भी अवश्य होना चाहिये। इसके अतिरिक्त उसमें निम्न प्रकार बुद्धिका विभव या श्रोताके आठ गुण भी होने चाहिये-- “ शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । स्मृत्यूहापोहनिर्णीतिः श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥" सबसे पहिले उसे उपदेश सुननेकी उत्कंठा ( शुश्रूषा ) होनी चाहिये, अन्यथा तदनुसार आचरण करना तो दूर रहा किन्तु वह उसे रुचिपूर्वक सुनेगा भी नहीं। अथवा शुश्रूषासे अभिप्राय गुरूकी सेवाका भी हो
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1 स शस्यो ।