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[ श्लो० ८
आत्मानुशासनम्
पापाद् दुःखं धर्मात् सुखमिति सर्वजन सुप्रसिद्धमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् ॥८॥
गुणमयं दयागुणेन निर्वृत्तं दयागुणैर्वा प्रकृतः यत्र । युक्त्या प्रमाणनयात्मिकया । अधिकृतः योग्य: । शास्त्रः प्रतिनाद्यः । निरस्ताग्रहः दुराग्रहरहितः ।।७।। एवंविधः शिप्यो गुरूपदेशात्सुखार्थितया धर्मोपार्जनार्थमेव प्रवर्तताम् । यतः पापादित्यादि । इति एवम् चरतु अनुतिष्ठतु | ८|| धनं वा चरता सर्वेणापि विशिष्टसुखप्राप्यथना विचार्याप्त:
सकता है, क्योंकि वह भी ज्ञानप्राप्तिका साधन है । इसके अनन्तर श्रवण ( सुनना ), सुने हुये अर्थको ग्रहण करना, ग्रहण किये हुए अर्थको हृदयमें धारण करना, उसका स्मरण रखना, उसके योग्यायोग्यका युक्तिपूर्वक विचार करना, इस विचारसे जो योग्य प्रमाणित हो उसे ग्रहण करके अयोग्य अर्थको छोडना, तथा योग्य तत्त्वके विषयमें दृढ रहना ये श्रोताके आठ गुण हैं जो उसमें होने चाहिये । उपर्युक्त गुणोंके अतिरिक्त श्रोता हठाग्रहका अभाव भी होना चाहिये, क्योंकि यदि वह हठाग्रही है तो वह यथावत् वस्तुस्वरूपका विचार नहीं कर सकेगा । कहा भी है-“आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम्।।” अर्थात् दुराग्रहीमनुष्यने जो पक्ष निश्चित कर रखा है वह युक्तिको उसी ओर ले जाना चाहता है । किन्तु जो आग्रहसे रहित होकर निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करना चाहता है वह युक्तिका अनुसरण करके उसके ऊपर विचार करता और तदनुसार वस्तुस्वरूपका निश्चय करता है । इस प्रकार जिस श्रोतामें ये गुण विद्यमान होंगे वह सुरूचिपूर्वक धर्मोपदेशको सुन करके तदनुसार आत्महितके मार्गमें अवश्य प्रवृत्त होगा ॥७॥ पापसे दुख और धर्मसे सुख होता है, यह बात सब जनोंमें भले प्रकार प्रसिद्ध है - इसे सब ही जानते हैं । इसलिये जो भव्य प्राणी सुखकी अभिलाषा करता है उसे पापको छोड़कर निरन्तर धर्मका आचरण करना चाहिये ||८|| सब प्राणी शीघ्र ही यथार्थ सुखको प्राप्त करनेकी