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-२५१] विज्ञाने जाते पूर्वमाचरितं कीदृशं प्रतिभाति २३३
द्रष्टाप्नोति न तावतास्य पदवीमिन्दोः कलङ्कं जगद् विश्वं पश्यति तत्प्रभाप्रकटितं किं कोऽप्यगात्तत्पदम् ॥२५०॥ यद्यद चरितं पूर्व तत्तदज्ञानचेष्टितम् ।
उत्तरोतरविज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ॥ २५१॥ रोधात कर्मवशात् । क्वचित चारित्रादौ । अन्धोऽपि स्थूलदृष्टिरपि । तावता दोषदर्शनमात्रेण । अस्य सर्वगुणाकरस्य । पदवीं पदम् । जगत् कर्तृ । विश्वं समस्तम् । तत्प्रभा इन्दुप्रभा । अगात् गतः तत्पदम् इन्दुपदम् ॥ २५० ।। यच्च असूयादिना परस्य दोषोद्भावनं स्वस्य च पूजाद्यर्थमष्टोपवासादिकमाचरितं। तदुत्तरोत्तरपरिणतो कीदृशं प्रतिभातीत्याह-- यद्यदित्यादि । यद्यत् परदोषोद्भावनं स्वगुणख्यापनादिकम् । आचरितं कृतम् । कदा। उत्तरोउस दोषको देखकर यदि अन्य जनोंके समक्ष उसकी निन्दा करता है तो इससे कुछ वह उस महात्माके समान उत्कृष्ट नहीं बन जाता है, बल्कि इसके विपरीत उसके अन्य उत्तमोत्तम गुणोंके ऊपर दृष्टिपात न करके केवल दोषग्रहणके कारण वह हीन ही अधिक होता है। जैसे कि चन्द्रमाके दोषको (कलंकको) देखनेवाले तो बहुत हैं, किन्तु उनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो कि उसके समान विश्वको आल्हादित करने वाला हो सके । अभिप्राय यह है कि दूसरोंके दोषोंको देखने और उनका प्रचार करनेसे कोई भी जीव अपनी उन्नति नहीं कर सकता है । कारण कि वह आत्मोन्नति तो आत्मदोषोंको देखकर उन्हें छोडने
और दूसरोंके प्रशस्त गुणोंको देखकर उन्हें ग्रहण करनेसे ही हो सकती है । जैसा कि कवि वादीभसिंहने भी कहा है- अन्यदीयमिवा" त्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुवतोऽयं युक्तः कायेन चेदपि । अर्थात् जो जीव अन्य प्राणियोंके समान अपने भी दोषको देखता है उसके समान कोई दूसरा नहीं हो सकता है । वह यद्यपि शरीरसे संयुक्त है, फिर भी वह मुक्तके ही समान है ॥ २५० ।। पूर्वमें जो जो आचरण किया है- दूसरेके दोषोंको और अपने गुणोंको जो प्रगट किया है- वह सब योगीके लिये आगे आगे विवेकज्ञानकी वृद्धि . 1ज आचरति।