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आत्मानुशासनम्
[श्लो० २५०
दोषः सर्वगुणाकरस्य महतो दैवानुरोधात्क्वचिज्जातो यद्यपि चन्द्रलाञ्छनसमस्तं द्रष्टुमन्धोऽप्यलम् ।
आहारास्तैः ।।२४९।। दोषान् निर्जित्य व्रतमनुतिष्ठतो मुनेः कर्मवशात्कदाचित्समुत्पन्नं दोषं तद्गुणप्रकटितमुद्भावयतो न कश्चिद् गुणातिशयो भवतीत्याह-- दोष इत्यादि । आकरस्य आधारस्य उत्पत्तिहेतोर्वा । महतो गुणोत्कृष्टस्य भवतः। दैवानु
है,किन्तु परनिन्दारूप भोजनको छोडता नहीं है; उसके वे रागादि दोष भी कभी नष्ट नहीं हो सकते हैं । कारण कि परनिन्दा करनेवाला ईर्ष्यालु मनुष्य मान कषायके वश हो करके दूसरेमें न रहनेवाले दोषोंको प्रगट करता है तथा जो गुण अपने में नहीं हैं उन्हे वह प्रकाशित किया करता है । इस प्रकार उसके वे राग-द्वेषादि घटनेके बजाय बढते ही हैं।२४९।। समस्त गुणोंके आधारभूत महात्माके यदि दुर्भाग्यवश कहीं चारित्र आदिके बिषयमें कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो चन्द्रमाके लांछनके समान उसको देखनेके लिये यद्यपि अन्धा (मन्दबुद्धि) भी समर्थ होता है तो भी वह दोषदर्शी इतने मात्रसे कुछ उस महात्माके स्थानको नहीं प्राप्त कर लेता है । जैसे-अपनी ही प्रभासे प्रगट किये गये चन्द्रके कलंकको समस्त संसार देखता है, परन्तु क्या कभी कोई उक्त चन्द्रकी पदवीको प्राप्त हुआ है ? अर्थात कोई भी उसकी पदवीको नहीं प्राप्त हुआ है। विशेषार्थ-जहां अनेक गुणोंका समुदाय होता है वहां कभी एक आध दोष भी उत्पन्न हो सकता है। जैसे चन्द्रमें आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुण हैं, फिर भी उनके साथ उसमें एक दोष भी है जो कलंक कहा जाता है । वह दोष भी उसकी ही प्रभा (चांदनी) के द्वारा प्रगट किया जाता है,अन्यथा वह उक्त चन्द्रके पास तक न पहुंच सकनेके कारण किसीकी दृष्टिमें ही नहीं आ सकता था। इसी प्रकार जिस साधुमें अनेक गुणोंके साथ यदि कोई एक आध दोष भी विद्यमान है तो वह अन्य साधारण प्राणियोंकी भी दृष्टिमें अवश्य आ जाता है । परन्तु ऐसा होनेपर भी कोई साधु उसके