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आत्मानुशासनम्
[श्लो० २४१
अप्रयत्नपरता। स प्रमाद: अव्रतात् हिंसादिपरिणतेः। मिथ्यात्वोपचितात मिथ्यात्वेन उपचितं पुष्टं मिथ्यात्वं वा उपचितं पुष्टं यत्र । स एव आत्मैव, न प्रकृतिः। क्वचित् मनुष्यभवे । दक्षता विवेकः । अकलुषता क्रोधादिरहितता। अयोगः कषाया (काया)द्यव्यापारैः कृत्वा। क्रमात् क्रमेण । सम्यक्त्वादिकृतां कर्मनिर्जरामाश्रित्य मुच्यते ॥ २४१ ॥ यः शरीरादे निस्पृहः स निस्पृहः, नान्यतः
बद्ध होकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वभावको छोडता हुआ राग-द्वेषादिरूप विभावमें परिणत होता है तब उसको अपने शुद्ध स्वभावमें स्थिर रखनेके लिये प्रयत्न करना भी- तपश्चरण आदि करना भी- उचित है । यदि वह द्रव्यके समान पर्यायसे भी शुद्ध हो तो फिर तपश्चरणादि व्यर्थ ठहरते हैं। अतएव यही समझना चाहिये कि वह आत्मा जिस प्रकार स्वभावसे शुद्ध है उसी प्रकार पर्यायकी अपेक्षा वह अशुद्ध भी है । अब जब वह पर्यायसे अंशुद्ध या कर्मबन्धसे सहित है तब यह प्रश्न उठता है कि बसे वह कर्मबन्धनमें बद्ध है तथा किस प्रकार वह उससे छूट सकता है । इसके उत्तरमें यहां यह बतलाया है कि वह अनादिसे उस कर्मबन्धनमें बद्ध है । उसके इस कर्मबन्धके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं । इनमें पूर्व पूर्व कारणके रहनेपर उत्तर उत्तर कारण अवश्य रहते हैं। जैसे- यदि मिथ्यात्व है तो आगेके अविरति आदि चार कारण अवश्य रहेंगे, इसी प्रकार यदि अविरीत है तो उसके आगेके प्रमाद आदि तीन कारण अवश्य रहेंगे। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये। यही बात यहां प्रकारान्तरसे प्रकृत श्लोकमें निर्दिष्ट की गई है। यह बन्धकी परम्परा बीज और अंकुरके समान अनादिसे है- जिस प्रकार बीजसे अंकुर व उससे पुनः बीज उत्पन्न होता है, इस प्रकारसे जैसे इनकी परम्परा अनादि है उसी प्रकार उपर्युक्त मिथ्यात्वादिसे कर्मबन्ध और फिर उससे पुनः मिथ्यात्वादि उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार यह बन्धपरम्परा भी अनादि है। परन्तु जिस प्रकार बीज या अंकुरमेंसे किसी एकके नष्ट हो जानेपर वह अनादि भी बीजांकुरकी परम्परा नष्ट हो जाती है उसी प्रकार उन मिथ्यत्वादिके विपरीत क्रमसे सम्यग्दर्शन, व्रत, दक्षता (अप्रमाद), अकलुषता (अकषाय) और अयोग अवस्थाके प्राप्त