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ममेदभाव ईतिरिव हानिकरः
ममेदमहमस्येति प्रीतिरीतिरिवोत्थिता । क्षेत्रे क्षेत्रीयते यावत्तावत्काशा तपःफले ॥ २४२ ॥ मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्योऽहमहमेवाहमन्योऽन्योऽहमस्ति न ।। २४३ ॥
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अन्य:
इत्याह-- ममेत्यादि । ईतिरिव उपद्रवकारिणी मूषकादिसंभूतिरिव । क्षेत्रे आत्मनि । क्षेत्रीयते क्षेत्रिणमिव आत्मानमाचरति । प्रीतिः कर्त्री । काशा न काचिदपि आशा । तपःफले मोक्षे ॥ २४२ ॥ प्रीतिवशाच्च अभेदबुद्धि: संसारहेतु:, तदभावान्मुक्तिरिति दर्शयन्नाह - - मामित्यादि । माम् आत्मानम् अन्यं भिन्नं कायादिकं मत्वा, अन्यं कायादिकं भिन्नं माम् आत्मानं मत्वा । भ्रान्तौ सत्याम् । भ्रान्तः पर्यटितः भवार्णवे । न अन्योऽहम् कायादिर्नाहम् । अहमेव अहम् आत्मैव अहम् । अन्य : हो जानेपर वह अनादि बन्धपरम्परा भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से वह आत्मा मुक्तिको प्राप्त करता है ।। २४१ ।। 'यह मेरा है और मैं इसका हूं ' इस प्रकारका अनुराम जबतक ईतिके समान खेत (शरीर) के विषय में उत्पन्न होकर खेत के स्वामीके समान आचरण करता है तबतक तपके फलभूत मोक्षके विषय में भला क्या आशा की जा सकती है? नहीं की जा सकती है ॥ विशेषार्थ - अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी), चूहा, तोता, स्वचक्र और परचक्र (अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलमा मूषका शुकाः । स्वचक्रं परचक्रं व सप्तैता इतयः स्मृताः ॥ ) ये सात ईति मानी जाती हैं । जिस प्रकार इन इतियोंमें से कोई भी ईति यदि खेत के मध्य में उत्पन्न होती है तो वह उस खेतको (फसलको ) नष्ट कर देती है । इससे वह कृषक कृषीके फल (अनाज) को नहीं प्राप्त कर पाता है । इसी प्रकार तपस्वीको यदि शरीर के विषय में अनुराग है और इसीलिये यदि वह यह समझता है कि यह शरीर मेरा है और में इसका स्वामी हूं तो उसका वह अनुराग ईतिके समान उपद्रवकारी होकर तपके फलको - मोक्षको नष्ट कर देता है ।। २४२ ॥ मुझको (आत्माको ) अन्य शरीरादिरूप तथा शरीरादिको मैं ( आत्मा ) समझकर यह प्राणी उक्त भ्रमके कारण अबतक संसाररूप समुद्र में घूमा है । वास्तवमें में अन्य नहीं हूं- शरीरादि नहीं हूं, मैं में ही हूं और अन्य (शरीसदि ) अन्य ही हैं, अन्य में नहीं