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आत्मानुशासनम् [श्लो० २४४बन्धो जन्मनि येन येन निबिडं निष्पादितो वस्तुना बाह्यार्थंकरतेः पुरा परिणतप्रज्ञात्मनः सांप्रतम् । तत्तत्तन्निधनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्ठास्पृशो
दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥ २४४ ॥ कायादिः । अन्यो भिन्नः। अन्योऽहमस्ति न कायादि: आत्मा भवति न। अभ्रान्ताविति च पाठः । अभ्रान्तो भवार्णवो अभ्रान्ती ॥२४३ ।। कायादिमनुरागबुद्धया वैराग्यबुद्धया च पश्यत: कर्मबन्धाय तद्विनाशाय भवतीति दर्शयन्नाह-- बन्ध इत्यादि । बाह्यार्थंकरते: बाहयार्थे एका अद्वितीया रतिर्यस्य आत्मनः । पुरा पूर्वम् । परिणतप्रज्ञात्मनः परिणता यथावत्पदार्थपरिच्छेदिका प्रज्ञा आत्म (आत्मा)स्वरूपं यस्य । तन्निधनाय बन्धविनाशाय । हूं; इस प्रकार जब अभ्रान्त ज्ञान (विवेक) उत्पन्न होता है तब ही प्राणी उक्त संसाररूप समुद्रके परिभ्रमणसे रहित होता है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जीव जबतक शरीरको ही आत्मा मानता है- शरीरसे भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माको उससे पृथक् नहीं मानता है- तबतक वह इस भ्रमके कारण परपदार्थोमें राग-द्वेष करके कर्मोदयसे संसारमें परिभ्रमण करता हुआ दुख सहता है। और जब उसका उपर्युक्त भ्रम हट जाता है- तब वह आत्माको आत्मा एवं शरीरादिपरपदार्थोंको पर मानने लगता है- तब वह राग-द्वेषसे रहित होकर उक्त संसारपरिभ्रमणसे छूट जाता है ।। २४३ । संसारके भीतर बाह्य पदा
र्थोंमें अतिशय अनुराग रखनेवाले जीवके पहिले जिस जिस वस्तुके द्वारा दृढ बन्ध उत्पन्न हुआ था उसीके इस समय यथार्थज्ञानसे परिणत होकर वैराग्यकी चरम सीमाको प्राप्र होनेपर वह वह वस्तु उक्त बन्धके विनाशका कारण हो रही है । विद्वानोंकी वह अलौकिक कुशलता अनुपम ही है जो दुर्बोध है- बडे कष्टसे जानी जाती है ॥ विशेषार्थ- बन्धके कारण राग-द्वेष हैं । जीवके जबतक आत्म-परविवेक प्रगट नहीं होता है तबतक उसके राग-द्वेषकी विषयभूत हुई परवस्तुओंके निमित्तसे बन्ध ही हुआ करता है । परन्तु जब उसके वह आत्म-परविवेक आविर्भूत हो जाता है तब वह पूर्व में जिन वस्तुओंसे राग-द्वेष करके दृढ कर्मबन्ध करता था वे ही, अब उसकी चूंकि उपेक्षाकी विषयभूत हो