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बन्ध-मोक्षकारणानि मिथ्यात्वोपचितात्स एव समल: कालादिलब्धौ क्वचित्
सम्यक्त्वव्रतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥ २४१॥ भूतग्रहादेश्च स्व-परपूर्वभवप्रतिपादकत्वप्रतीतेः। स च अस्तमितादिबन्धनगतः अस्तसितो नष्ट: आदिर्येषां तानि च तानि बन्धनानि तत्र गतः अनादिकर्मबन्धनबद्ध इत्यर्थ स्तिमिताबन्धनमत। (इत्यर्थः । स्तिमितादिबन्धनगत:) इति च पाठः । तत्र स्थित्यादिबन्धनस्थितिरित्यर्थः । तद्वन्धनानि अस्तमितादिबन्धनानि । आस्रवै: काय-वाङ्-मनोव्यापारैः । प्रमाद: उनके इस मतके निराकरणार्थ यहां श्लोकमें सबसे पहिले 'अस्त्यात्मा' कहकर यह प्रमाणित किया है कि आत्मा नामसे प्रसिद्ध कोई वस्तु अवश्य है । यदि आत्मा न होता तो बहुतोंको जो अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है वह नहीं होना चाहिये। इसके अतिरिक्त भूत-पिशाचादिकोंको भी अपने और दूसरोंके पूर्वभवोंको बतलाते हुए देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा नामकी कोई वस्तु अवश्य है जो विवक्षित जन्मके पूर्वमें भी था और मरणके पश्चात् भी रहती है। इसी प्रकार सांख्य आत्माको स्वीकार करके भी उसे सर्वदा शुद्ध-कर्मसे अलिप्त मानते हैं । उसके निराकरणार्थ यहां उस आत्माको अनादिबन्धनगत निर्दिष्ट किया है। इसका अभिप्राय यह है कि शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा यद्यपि प्रत्येक आत्मा कर्मसे अलिप्त होकर अपने ही शुद्ध चैतन्यरूप द्रव्यमें अवस्थित है। स्वभावसे एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पडता है । जैसे- सुवर्णमें यदि तांबेका मिश्रण भी हो तो भी सुवर्णपरमाणु सुवर्णस्वरू. पसे और तांबेके परमाणु तत्स्वरूपसे ही अपनी पृथक् पृथक् स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं । यही कारण है जो सुनारके द्वारा उन दोनोंको पृथक् कर दिया जाता है। किन्तु यह द्रव्यके उस शुद्ध स्वभावको अपेक्षा ही सम्भव है, न कि वर्तमान अशुद्ध पर्यायकी अपेक्षा भी। पर्यायकी अपेक्षा तो संसारी आत्मा अनादि सन्तति स्वरूपसे आनेवाले नवीन नवीन कर्मोके बन्धसे सम्बद्ध ही रहता है । और जब वह पर्यायकी अपेक्षा कमबन्धनमें
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