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आत्मानुशासनम्
... [लो० २४१
अस्त्यात्मास्तमितादिबन्धनमतस्तद्वन्धनान्यास्रवः ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽव्रतात् ।
परमं पदं मोक्षम् ।।२४०।। ननु आत्मनि सिद्धे तस्य परमपदप्राप्तिः सिद्धयेत् । स चासिद्धो गर्भादिमरणपर्यन्तं चैतन्यव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽभवात् इति चार्वाकाः । सदैवात्मनो मुक्तत्वात् शुभं त्यक्त्वा परमं पदं प्राप्नोतीत्ययुक्तमिति सांख्याः । तान् प्रत्याह--- अस्तीत्यादि। सर्वदा विद्यते आत्मा, जातिस्मरणदर्शन त।
होकर उस शुभको भी छोड देना चाहिये। इस प्रकार अन्तमें उस शुभके
अविनाभावो पूण्य व सांसारिक सूखके भी नष्ट हो जानेपर जीव उस निर्बाध मोक्ष पदको प्राप्त कर लेता है जो कि अनन्त काल तक स्थिर रहनेवाला है ॥२४०॥ आत्मा है और वह अनादि परम्परासे प्राप्त हुए बन्धनोंमें स्थित है । वे बन्धन मन,वचन एवं शरीरको शुभाशुभ क्रियाओरूप आस्रवोंसे प्राप्त हुए हैं; वे आस्रव क्रोधादि कषायोंसे किये जाते हैं; क्रोधादि प्रमादोंसे उत्पन्न होते हैं, और वे प्रमाद मिथ्यात्वसे पुष्ट हुई अविरतिके निमित्तसे होते हैं । वही कर्म-मलसे सहित आत्मा किसी विशिष्ट पर्यायमें कालादिलब्धिके प्राप्त होनेपर कनसे सम्यग्दर्शन, व्रत, दक्षता अर्थात् प्रमादोंका अभाव, कषायोंका विनाश और योगनिरोधके द्वारा उपर्युक्त बन्धनोंसे मुक्ति पा लेता है। विशेषार्थ-चार्वाक आत्माका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं । उनका अभिप्राय है कि जिस प्रकार कोयला, अग्नि, जल एवं वायु आदिके संयोगसे जो प्रबल बाष्प उत्पन्न होता है वह भारी रेल गाडी आदिके भी चलानेमें समर्थ होता है, उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतोंके संयोगसे वह शक्ति उत्पन्न होती है जो शरीरको गमनागमनादि क्रियाओं एवं पदाथोंके जानने-देखने आदिमें सहायक होती है । उसे ही चेतना शब्दसे कहा जाता है । और वह जब तक उन भूतोंका संयोग रहता है तभी तक (जन्मसे मरण पर्यन्त) रहती है, न कि उससे पूर्व और पश्चात् भी ।
1 ज स जातिस्मरदर्शनात् ।