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शुभाशुभे द्वेऽपि त्यजनीये
तत्राप्याद्यं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्धे त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥ २४०॥
शुभादित्रयेऽपि त्यागक्रमं दर्शयन्नाह-- तत्रेत्यादि । तत्रापि आद्यं शुभम् । शेषी पुण्य सुखपदार्थों कारणाभावे ( न ) भवतः । शुद्धे उदासीने भावे स्थित्वा शुभं त्यक्त्वा । अम्ते शुभावसाने 1
त्रये हिते । कार्यानुत्पत्तेः
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उनमें भी प्रथमका (शुभका) परित्याग करना चाहिये । ऐसा करनेसे शेष रहे पुण्य और सुख ये दोनों स्वयं ही नहीं रहेंगे, इस प्रकार शुभको छोडकर और शुद्ध स्वभावमें स्थित होकर जीव अन्त में उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ॥ विशेषार्थ - ऊपर जो इस श्लोकका अर्थ लिखा गया है वह संस्कृत टीकाकार श्री प्रमाचंद्राचार्य के अभिप्रायानुसार लिखा गया है । उपर्युक्त श्लोकका अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है - इलोक २३९ में जो अशुभ, पाप और दुख ये तीन अहितकारक बतलाये गये हैं उनमें भी प्रथम अशुभका ही त्याग करना चाहिये । कारण यह कि ऐसा होनेपर शेष दोनों पाप और दुख स्वयमेव नहीं रह सकेंगे, क्योंकि, इनका मूल कारण अशुभ ही है। इन प्रकार जब मूल कारणभूत वह अशुभ न रहेगा तब उसका साक्षात् कार्यभूत पाप स्वयमेव नष्ट हो जावेगा, और जब पाप ही न रहेगा तो उसके कार्यभूत दुखकी भी कैसे सम्भावना की जा सकती है नहीं की जा सकती है । इस प्रकार उक्त अहितकारक तीनके नष्ट हो जानेपर शेष तीन जो शुभादि हितकारक रहते हैं वे भी वास्तव में हितकारक नहीं है (देखिये आगे श्लोक २६२ ) । उनको जो हितकारक व अनुष्ठेय बतलाया गया है वह अतिशय अहितकारी अशुभादिकी अपेक्षा ही बतलाया है । यथार्थमें तो वे भी परत
ताके ही कारण हैं । भेद इतना ही है कि जहां अशुभादिक जीवको नारक एवं तिर्यंच पर्यायमें प्राप्त कराकर केवल दुखका ही अनुभव कराते हैं वहां वे शुभादिक उसको मनुष्यों और देवों में उत्पन्न कराकर दुखमिश्रित सुखका अनुभव कराते हैं । इसीलिये यहां यह बतलाया है कि उन अशुभादिक तीनको छोड देनेके पश्चात् शुद्धोपयोगमें स्थित