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आत्मानुशासनम्
[श्लो० २३८
भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥२३८॥ शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च षट् त्रयम् । हितमायमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥२३९॥
कुर्वन्नहमित्थं भावनां भावयामीत्याह-- भावयामीत्यादि । भावनाः पुनः पुनः चेतसि चिन्तनम् । प्रागभाविता: सम्यग्दर्शनादिभावनाः । भाविताः प्रागनुष्ठिताः मिथ्यादर्शनादिभावनाः । इत्यनेन प्रकारेण भावना: भावये । भवाभावाय संसारविनाशाय ।।२३८।। भावनाविषयभूतं वस्तु किमात्मनो हितं किं वा अहितम् इत्याह-- शुभेत्यादि । शुभाशुभे प्रशस्ताप्रशस्तो वाक्-काय-मनो-व्यापारौ । त्रयमाद्यं शुभं पुण्यं सुखं च । हितमुपकारकम् । अनुष्ठेयं कर्तव्यम् ॥ २३९ ॥
भंवरमें पडकर पहिले कभी जिन सम्यग्दर्शनादि भावनावोंका चिन्तन नहीं किया है उनका अब चिन्तन करता हूं और जिन मिथ्यादर्शनादि भावनाओंका वार वार चिन्तन कर चुकाहूं उनका अब मैं चिन्तन नहीं करता हूं। इस प्रकार में अब पूर्व मावित भावनाओं को छोडकर उन अपूर्व भावनाओंको भाता हूं, क्योंकि, इस प्रकारको भावनायें संसारविनाशकी कारण होती हैं ।।२३८॥ शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप तथा सुख और दुख ; इस प्रकार ये छह हुए । इन छहोंके तीन युगलों से आदिके तोन- शुभ, पुण्य और सुख- आत्माके लिये हितकारक होनेसे आचरणके योग्य हैं । तथा शेष तीन-- अशुभ, पाप और दुख- अहित-- कारक होनेसे छोडनेके योग्य हैं । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनपूजनादिरूप शुम क्रियाओंके द्वारा पुण्य कर्मका बन्ध होता ह और उस पुण्य कर्मके उदयमें प्राप्त होनेपर उससे सुखकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हिंसा एवं असत्यसंभाषणादिरूप अशुभ क्रियायोंके द्वारा पापका बन्ध होता है और उस पाप कर्मके उदयमें प्राप्त होनेपर उससे दुखको प्राप्ति होती है । इसीलिये उक्त छहमेंसे शुभ, पुण्य और सुख ये तीन उपादेय तथा अशुभ, पाप और दुख ये तीन हेय हैं ।। २३९ ।। पूर्व श्लोकमें जिन तीनको-शुभ, पुण्य और सुखको-हितकारक बतलाया है