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कृष्णराज निधानस्थाननिर्देश:
भूयांस्तस्य भुजङगदुर्गमतमो मार्गों निराशस्ततो व्यक्तं वक्तुमयुक्तमार्य महतां सर्वार्थसाक्षात्कृतः ॥९६॥
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सः अस्ति यस्मिन् सति । भूमृतो राजानो मूर्ध्ना मस्तकेन प्रियन्ते लोकैः । किमर्थम् । श्रियै लक्ष्मीनिमित्तम् । कथंभूता भूभृतः । धृतमहावंशाः धृतेक्ष्वाक्त्रा - दिवंशाः । तथा प्रज्ञायाः पारमिता : प्रज्ञानाः पारं पर्यन्तम् इता मताः 1 धृतोन्नतिधना: उन्नतिश्च धनं च ते धृते यैः । तस्य धर्मलक्षणत्रदेवस्य । मार्गः उपाय: । भूयान् प्रचुरः, दानव्रतादिभेदात् । निराशः आशायाः आकांक्षाया: 1 निःक्रान्तः । भुजङय मदुर्गमतमः भुचङगानां कामुकानां दुर्गमतमः अगरे वरः । यतः एवं ततो व्यक्त स्फुटं वक्तुम् अयुक्तम् । आर्य महताम् आर्याणां मध्ये महतवम् अस्माकम् । सर्वार्थसाक्षात्कृतः सर्वैः आर्यैः गणधर देवादिभिः साक्षात्कृतो अनुभूतः । अथवा सर्वै: भव्यैः अर्यते मम्यते सेव्यते इति सर्वार्य: (र्यः ) सर्वज्ञः तेन साक्षीकृतः, न पुनः कस्यचिदप्यसौ,प्रतीत्यगोचरः इत्यर्थः । । ९६ । । शरीरादिभ्यो वैराग्यमुलाथ जैनस्य धर्म तन्मार्ग च
भुजंगो-कामी जनों के लिये दुर्लभ है । इस कारण महापुरुषों के लिये उसका स्पष्टतया व्याख्यान करना अशक्य है । वह धर्म सर्वार्थ अर्थात् सबों से पूजने योग्य सर्वज्ञके द्वारा प्रत्यक्ष में देखा गया है । विशेषार्थ - जिस प्रकार कृष्णराजाका कोष (खजाना ) अनेक उन्नत विशाल पर्वतों से घिरे हुए एवं सर्पादि हिंस्र जन्तुओं से व्याप्त दुर्गम स्थानमें निक्षिप्त था और उसके संबंध में सर्वार्थ नामक राजाके द्वितीय मंत्रीको छोडकर अन्य कोई कुछ भी नहीं जानता था तथा दूसरोंके लिये चोरी आदि के भय से उसके संबंध में कुछ बतलाया भी नहीं जा सकता था । उसी प्रकार यह धर्मका स्वरूप भी साधारण जनोंके लिये दुर्गम है। उसको प्रत्यक्ष रूप से तो सर्वज्ञ ही जानता है तथा उस सर्वज्ञ के द्वारा किये गये व्याख्यान से अन्य गणधार आदि भी यथा योग्य जानते हैं । साधारण मनुष्य अन्य जनोंके लिये उसका स्पष्टतया व्याख्यान नहीं कर सकते हैं, किंतु विशिष्ट बुद्धिको धारण करनेवाले ही उसका स्पष्ट प्रतिपादन कर सकते हैं। जिन-महाराजा आदिकी अन्य मनुष्य सेवा किया करते हैं वे इसी धर्म के प्रभावसे होते हैं । अतएव जो ऐहिक एवं पारलौकिक सुखकी अभिलाषा करते हैं उन्हें व्रत, संयम, जप-तप एवं दानादिके भेदसे अनेक प्रकारके उस धर्मका आचरण करना चाहिये ॥९६॥
स बाशायां आकांक्षायां ।