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लोभतो हानिप्रदर्शनम् कामं गिलन् धवलदीधितिधौतदाहं। गूढोऽप्यबोधि न विधुं2 स विधुन्तुदः कः ॥ २२२॥ वनचरभयाद्भावन देवाल्लताकुलबालधिः किल जडतया' लोलो बालबजेऽविचलं स्थितः ।
अत्यर्थम् । धवलदीधितीत्यादि-धवलदीधितिभिः शुभ्रकिरणः धौत: स्फेटितो दाहो येन विधुना तम् । गूढ: दुर्लक्ष्यः। अबोधिः। विधुं+ चन्द्रम् ।। २२२ ॥ लोभकषायादपकारं दर्शयन्नाह-- वनेत्यादि । वनचरः भिल्ल: व्याघ्रादिर्वा । लताकुलबालधि: लतायां आलग्नपुच्छः । जलतया जडतया । लोल: लोभवान् । क्व ।
भी वह राहु किनके द्वारा नहीं जाना गया है ? अर्थात् वह सभीके द्वारा देखा जाता है ॥ विशेषार्थ-- मायावो मनुष्य प्रायः यह समझता है कि मैं जो यह कपटपूर्ण आचरण कर रहा हं न उसे ही कोई जानता देखता है और न उसके कारण होनेवाली गुणकी हानिको भी। परन्तु यह समझना उसकी भूल है । देखो, जो चन्द्र अपनी निर्मल शीतल किरणोंसे संसारके संतापको दूर करके उसे आल्हादित करता है उसे राहु कितनी भी गुप्त रीतिसे क्यों न ग्रसित करे, परन्तु वह लोगोंकी दृष्टिमें आ ही जाता है- वह छिपा नहीं रहता है । अभिप्राय यह है कि मनुष्य जो कपटपूर्ण व्यवहार करता है वह तत्काल भले ही प्रगट न हो, किन्तु कालान्तरमें वह प्रगट हो ही जाता है। अतएव ऐसा समझकर मायापूर्ण व्यवहार कभी भी न करना चाहिये ।। २२२ ॥ बनमें संचार करनेवाले सिंहादि अथवा भीलके भयसे भागते हुए जिस चमर मृगकी पूंछ दुर्भाग्यसें लतासमूहमें उलझ गई है तथा जो अज्ञानतासे उस पूंछके बालोंके समूहमें लोभी होकर वहींपर निश्चलतासे खडा हो गया है, वह मृग खेद है कि उक्त सिहादि अथवा व्याधके द्वारा प्राणोंसे भी रहित किया जाता है। ठीक है- जिनकी तृष्णा वृद्धिंगत
1 मु (जै. नि.) दाहो। 2 मु (ज. नि.) विधुः। 3 ज स अबोधि बुधः (बुधः) विधं 1 4 प म (ज. नि.) जडतया ।