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आत्मानुशासनम् [श्लो० २२३बत स चमरस्तेन प्राणरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ॥ २२३ ॥ विषयविरतिः संगत्यागः कषायविनिग्रहः शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यमः । नियमितमनोवृत्तिर्भक्तिजिनेषु दयालुता भवति कृतिनः संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ॥ २२४॥
बालबजे बालसमूहे। अविचलं यथा भवत्येवं स्थितः। तेन वनचरेण । प्राणरपि-- न केवलं बालव्रजेन, अपि तु प्राणैरपि स प्रकर्षण प्रवियोजितः । परिणततृषां प्रवृद्धतृष्णानाम् । विपत्तय: आपदः ॥ २२३ ।। तस्मात्कषायानेवंविधापकारकान् विनिजित्य आसन्नभव्य: एवंविधां सामग्री लमते इति दर्शयन् विषयेत्यादिश्लोकद्वयमाह--विषयेत्यादि । संगः परिग्रहः । तत्त्वाभ्यास: सप्ततत्त्वभावना । नियमिता नियन्त्रिता ॥ २२४ ॥ यमनियमेत्यादि--
है उनके लिये प्रायः करके ऐसी ही विपत्तियां प्राप्त होती हैं। विशेषार्थ-- लोभी प्राणीको कैसा कष्ट भोगना पडता है, इसका उदाहरण देते हुए यहां यह बतलाया है कि देखो जो चमर मृग दौडने में अतिशय प्रवीण होता है उसकी पूंछ जब व्याधादिक भयसे दौडते हुए लताओंमें फंस जाती है तब वह बालोंके लोभसे-- मेरी पूंछके सुन्दर बाल टूट न जावें इस विचारसे- दौडना बंद करके वहींपर रुक जाता है और इसीलिये वह व्याधादिके द्वारा केवल उन बालोंसे ही रहित नहीं किया जाता है, किन्तु उनके साथ प्राणोंसे भी रहित किया जाता है । इसी प्रकार सभी लोभी जीवोंको उक्त लोभके कारण दुःसह दुःख सहन । पडता है ।। २२३ ॥ इन्द्रियविषयोंसे विरक्ति, परिग्रहका त्याग, कषायोंका दमन, राग-द्वेषकी शान्ति, यम-नियम, इन्द्रियदमन, सात तत्त्वोंका विचार, तपश्चरणमें उद्यम, मनकी प्रवृत्तिपर नियन्त्रण,जिन भगवान्में भक्ति, और प्राणियोंपर दयाभाव; ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीवके होते हैं जिसके कि संसाररूप समुद्रका किनारा निकटमें आ चुका है ॥ २२४ ।।