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आत्मानुशासनम् [श्लो० २२१-.. भेयं मायामहागन्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिल्लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमायः ॥ २२१॥ प्रच्छन्नकर्म मम कोऽपि न वेति धीमान ध्वंसं गुणस्य महतोऽपि हि मेति मंस्थाः ।
भेयं भयं कर्तव्यम् । मायामहागांत मायैव महागत: अन्धकपः तस्मात् । कथंभूतात् । मिथ्याघनतमोमयात् मिथ्या असत्यं तदेव धनं निबिडं तमस्तेन निर्वृत्तात् । यस्मिन् मायामहागर्ने। लीनास्तिरोहिताः। क्रोधादिविषमाहयः क्रोधादय एव विषमा रौद्रा अहयः सर्पाः ।। २२१॥ प्रच्छन्नेत्यादि । प्रच्छन्नम् अप्रकटकम् । ध्वंसं विनाशम् । मेति मंस्थाः इत्येवं मा बुध्यस्व । कामम्
जो मायाचाररूप बडा गढ्ढा मिथ्यात्वरूप सघन अन्धकारसे परिपूर्ण है तथा जिसके भीतर छिपे हुए क्रोधादि कषायोंरूप भयानक सर्प देखनेमें नहीं आते हैं उस मायारूप गड्ढेसे भयभीत होना चाहिये ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार सघन अन्धकारसे परिपूर्ण एवं सादिकोंसे व्याप्त गहरे गड्ढेमें यदि कोई प्राणी असावधानीसे गिर जाता है तो उससे उसका उद्धार होना अशक्य है- सादिकोंके द्वारा काटनेसे वहां ही वह मरणको प्राप्त होता है। उसी प्रकार यह मायाचार भी एक प्रकारका गहरा गड्ढा ही है- गड्ढा यदि अन्धकारसे पूर्ण होता है तो वह मायाचार भी असत्यसम्भाषणादिरूप अन्धकारसे पूर्ण है तथा गड्ढेमें जहां दुष्ट सर्पादि छिपे रहते हैं वहां मायाचारमें भी उक्त सर्पोके समान कष्टप्रद क्रोधादि कषायें छिीं रहती हैं । अतएव आत्महितैषी जीवोंको उस भयानक मायाचाररूप गड्ढेसे दूर ही रहना चाहिये ॥ २२१ ॥ हे भव्य ! कोई भी बुद्धिमान् मेरे गुप्त पापकर्मको तथा मेरे महान् गुणके नाशको भी नहीं जानता है, ऐसा तू न समझ । ठीक है- अपनी धवल किरणोंके द्वारा प्राणियोंके संतापको दूर करनेवाले चन्द्रको अतिशय ग्रसित करनेवाला गुप्त
1 मुद्रितप्रतिपाठोऽयम्, ज प प्रच्छन्नपापमम, स प्रच्छन्नपापममि । 2 ज स निवृत्तात् ।