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मायातो हानिप्रदर्शनम्
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पृथिवी क्षुभित हो उठी थीं । पृथिवी के इस प्रकार से क्षुभित देखकर बलिने शुक्राचार्यको नमस्कार कर उनसे इसका कारण पूछा । उत्तरमें वे बोले कि भगवान् कृष्णने वामनके रूपमें कश्यपके यहां अवतार लिया है । वे तुम्हारे यज्ञमें आ रहे हैं। उनकी पादप्रक्षेपसे पृथिवो विचलित हो उठी है । यह उस जगद्धाता कृष्णकी माया है । शुक्राचार्यके इन वचनोंको सुनकर बलिको बहुत हर्ष हुआ, उसने अपनेको अतिशय पुण्यशाली समझा । उनका यह वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी समय कृष्ण वामनके वेष में वहां आ पहुंचे । तब बलिने अर्घ लेकर उनकी पूजा करते हुए कहा कि मेरे पास सुवर्ण, चांदी, हाथी, घोडे, स्त्रियां, अलंकार एवं गायें आदि सब कुछ हैं, इनमेंसे जो कुछ भी मांगो उसे मैं दूंगा । इसपर हंसकर कृष्णने वामन के रूपमें कहा कि तुम मुझे तीन पाद मात्र पृथिवी दो । सुवर्ण आदि तो उनको देना जो उनके ग्रहणकी इच्छा करते हो । इसे स्वीकार करते हुए बलिने उनके हाथपर जलधारा छोडी । उस जलधारा के गिरते ही कृष्णने वामनाकारको छोड़कर अपने सर्व देवमय विशाल रूपको प्रकट कर दिया । इस प्रकारसे कृष्णने तीन लोकोंको जीतकर और प्रमुख असुरोंका संहार कर उन तीनों लोकोंको इन्द्र के लिये दे दिया । इसके साथ ही उन्होंने सुतल नामक पाताल बलिके लिये भी दिया । उस समय वे बलिसे बोले कि तुमने जलधारा दी है और मैंने उसे हाथसे ग्रहण किया है, अतएव तुम्हारी आयु कल्पप्रमाण हो जावेगी, वैवस्वत मनुके पश्चात् सार्वाणक मनुके प्रादुर्भूत होनेपर तुम इन्द्र होओगे, इस समय मैंने समस्त लोक इन्द्रको दे दिया है । जब तुम देवों और ब्राह्मणोंसे विरोध करोगे तब तुम वरुणके पाशसे बंधे जाओगे । इस समय जो तुमने बहुत दानादि सत्कार्य किये हैं वे उस समय अपना फल देंगे । इस प्रकार कृष्णने मायापूर्ण व्यवहारसे बलिपर विजय पायी थी, अतएव वे अपयशरूप कालिमासे लिप्त हुए ।। २२० ॥
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