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आत्मानुशासनम्
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नहीं लिखा गया है । इतना ही नहीं, बल्कि किसी किसी श्लोकका तो पूरा अर्थ भी स्पष्ट नहीं हुआ है ( देखिये श्लोक १७१) । प्रभाचन्द्र जैसे उच्च कोटिके तार्किक विद्वान्से यह सम्भावना नहीं की जाती कि उनके सामने तदेव तदतद्रूपं, एकमेकक्षणे सिद्धं ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकम् न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमात्रं नाभावमप्रतिहत प्रतिभासरोधात्, गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाश इष्यते' जैसे विशेष वर्णनीय विषयके रहते हुए भी वे उसके ऊपर विशेष कुछ भी न लिखें। इन विषयोंकी प्ररूपणा उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थों में प्रकरण के अनुसार विस्तारसे की है ।
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आत्मानुशासन श्लोक २६५ की टीकामे यह श्लोक उद्धृत किया गया है --
दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥
यही श्लोक प्रमेयकमलमार्तण्ड ( ६ - ७४ ) में इस रूपमें उद्धृत किया गया है -
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ यह श्लोक सौन्दनन्द काव्य में इसी स्वरूपमें पाया जाता है। इसके साथ ही प्रमेयकमलमार्तण्ड में ' जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो' आदि दूसरा श्लोक भी उद्धृत किया गया है जो इस श्लोक सम्बन्ध रखता है ।
एक ही लेखक किसी अन्य ग्रन्थकारके वाक्यको एक स्थानपर एक रूपमें और दूसरे स्थानमें अन्य स्वरूपसे उद्धृत करे, यह सम्भव नहीं है। जहां तक मैं समझता हूं, ये दोनों श्लोक यशस्तिलक (उ. खण्ड पृ. २७० ) में ' दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्' आदिके रूपमें उद्धृत किये गये हैं । वहांसे ही सम्भवतः आत्मानुशासनके टीकाकार उन प्रभाचन्द्रने उक्त श्लोकको आत्मानुशासनकी टीकामें उद्धृत किया है । इससे इन दोनों प्रभाचन्द्रों में भिन्नता सिद्ध होती है ।