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मोहमाहात्म्यदर्शनम् पिता पुत्रं पुत्रः पितरमभिसंधाय बहुधा विमोहादीहेते सुखलवमवाप्तुं नृपपदम् । अहो मुग्धो लोको मृतिजननदंष्ट्रान्तरगतो न पश्यत्यान्तं तनुमपहरन्तं यमममुम् ॥ ३४॥
एतैरनुष्ठीयमानमार्गबाह्यः संसारस्थितिमपश्यन्नयं लोकः किं करोतीत्याह-- पिता पुत्रमित्यादि । अभिसंधाय वञ्चित्वा। ईहेते अभिलपत: । सुखलवं सुखस्य लवो लेगो यत्र । अश्रान्तम् अनवरतम् । तनुमपहरन्तं शरीरं विनाशयन्तम् । अमुं लोकप्रसिद्धं यमम् ॥ ३४ ॥ विषयव्यामुग्धस्य पुत्रवधाद्यकृत्य
मनुष्य इस समय सम्भव नहीं हैं, उनकी केवल पुराणोंमें ही बात सूनी जाती है । इस आशंकाका परिहार करते हुए यहां यह बतलाया है कि वैसे साधु पुरुष कुछ थोडे-से आज भी यहां विद्यमान हैं, उनका सर्वथा अभाव अभी भी नहीं है । जिस प्रकार हिमालय आदि कुलपर्वत मोहसे रहित होकर पृथिवीको धारण करते हैं उसी प्रकार वे साध जन भी निर्मोह होकर पथिवीके प्राणियोंका उद्धार करते हैं, जिस प्रकार समुद्र मोती आदि बहुमूल्य रत्नोंका आश्रय (रत्नाकर) होकर भी स्वयं उनको इच्छा नहीं करता है उसी प्रकार वे साधु पुरुष भी सम्यग्दर्शन आदिरूप गुणरत्नोंके आश्रय होकर धनको इच्छासे रहित होते हैं, तथा जिस प्रकार आकाश किन्हीं पदार्थोंसे लिप्त न होकर अपने व्यापकत्व गुणसे समस्त पदार्थोंको आश्रय देता है; उसी प्रकार वे साधु जन भी रागादि दोषोंसे लिप्त न होकर अपने महात्म्यसे समस्त प्राणियोंके संक्लेशको दूर करके उनको आश्रय देते हैं ॥३३॥ पिता पुत्रको तथा पुत्र पिताको धोखा देकर प्रायः वे दोनों ही मोहके वश होकर अल्प सुखवाले राजाके पद (सम्पत्ति) को प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करते हैं । परन्तु आश्चर्य है कि मरण और जन्मरूप दाढोंके बीचमें प्राप्त हुआ यह मूर्ख प्राणी निरन्तर शरीरको नष्ट करनेवाले उस उद्यत यमको नहीं देखता है ॥३४॥ जिसके नेत्र इन्द्रियविषयोंके द्वारा अन्धे कर दिये गये हैं अर्थात् विषयोंमें मुग्ध रहनेसे जिसको विवेकबुद्धि नष्ट हो चुकी है ऐसा यह प्राणो उस