________________
१४
.
आत्मानुशासनम् ऐसे वेषधारी साधु विषयपोषणके लिये कुछ भी बहाना बनाकर गृहस्थोंसे दीनतापूर्वक धनको याचना भी करते हैं। श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति यह कहता है कि संसारमें परमाणुसे हीन तथा आकाशसे महान् कोई भी वस्तु नहीं है, उसने इन दीन और स्वाभिमानी मनुष्योंको नहीं देखा है- दीन याचक तो परमाणुसे भी तुच्छ तथा इस याचनासे रहित स्वाभिमानी मनुष्य उस अनन्त आकाशसे भी महान् है (१५१-५२) । किसीने यह ठीक ही कहा है
देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्चदेवताः । मुखान्निर्गत्य गच्छन्ति श्री-ही-धी-धृति-कीर्तयः ।। अर्थात् 'देहि- मुझे कुछ दो' इस वाक्यको सुनकर श्री (कान्ति), लज्जा, बुद्धि, धीरता और कीर्ति ये पांचों शरीरस्थ देवता (गुण) उक्त ‘देहि' पदके साथ ही मुखसे निकलकर भाग जाते हैं। तात्पर्य यह कि याचक मनुष्यके मुखकी कान्ति नष्ट हो जाती हैउसका चेहरा फीका पड जाता है, लज्जा जातो रहती है- वह निर्लज्ज बन जाता है, साथ ही वह अपनी विवेकबुद्धि, धैर्य और यशको भी खो देता है।
यहां आचार्यने तराजूका उदाहरण देकर इस बातको पुष्ट किया है कि तराजूके जिस पलडेपर कोई वस्तु रखी जाती है वह स्वभावतः नीचे तथा जिस दूसरे पलडेपर कुछ नहीं रखा जाता है वह स्वभावतः ऊंचेकी ओर जाता है। इसी प्रकार जो याचक दातासे कुछ ग्रहण करता है उसकी अधोगति तथा जो दाता कुछ ग्रहण न करके देता ही है उसकी ऊर्ध्वगति होती है (१५४)। ____ आगे वे समीचीन साधुको लक्ष्य करके कहते हैं कि जो महात्मा शरीरको स्थिर रखने की इच्छासे तपकी वृद्धिपूर्वक श्रावकके द्वारा नवधा भक्तिसे दिये गये आहारको यदा कदा ही परिमित मात्रामें ग्रहण किया करता है, साथ ही जो इसके लिये अतिशय लज्जाका भी अनुभव करता है; वह क्या कभी उक्त भोजनको छोडकर अन्य धनादिको भी ग्रहण कर सकता है ? कभी नहीं - जो इस प्रकारकी अन्य वस्तुओंको ग्रहण करते हैं वे