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प्रस्तावना
जाता है उक्त तीनों ग्रंथोंके टीकाकार श्री प्रभाचन्द्र श. सं. ८८१ ( ८८१ + १३५ = वि. सं. १०१६ ) के बाद किसी समय में हुए हैं । उन्होंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ४ - १८ की टीकामें निम्न दो श्लोक उद्धृत किये हैं
अध्रुवाशरणे चैव भव एकत्वमेव च । अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवास्रवसंवरौ ॥ निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता । द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपंगुवैः ॥
ये दोनों श्लोक पद्मनन्दिपञ्चविंशति (६, ४३–४४) के हैं । इसके रचयिता श्री मुनि पद्मनन्दि पं. आशाधरजीके पूर्वमें हो गये हैं । कारण यह कि पं.अशाधरजी ने अपने अनगारधर्मामृत में 'आचेलक्यौद्देशिक आदि श्लोक ( ९-८० ) की स्वोपज्ञ टीकामें 'अत एव श्रीपद्मनन्दिपा - दैरपि सचेलतादूषणं दिङ्मात्रमिदमधिजगे' लिखकर पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिका ' म्लाने क्षालनतः कुतः आदि श्लोक ( १ - ४१) उद्धृत किया है १ । यह टीका उन्होंने वि. सं. १३०० में समाप्त कीं है २ । इससे यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि श्री पद्मनन्दि मुनि पं. आशाधरजी के पूर्ववर्ती विद्वान् हैं। श्रद्धेय पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारने मुनि पद्मनन्दीको जिन शुभचन्द्राचार्यका शिष्य बतलाया है उनका देहावसान शक
१. इसके अतिरिक्त विना नामोल्लेखके तो उन्होने पद्मनन्दिपञ्चविशतिके कितने ही श्लोकोंको इस अनगारधर्मामृतकी स्वोपज्ञ टीकामें उद्धृत किया है । यथा-८-२१की टीकामें 'यज्जानन्न पि' आदि ( प. १०-१), ८- २३को टीकामें 'मुक्त इत्यपि आदि (प. १०-१८), 'यद्यदेव' आदि ( प. १०-१६) तथा 'अन्तवङगबहिङगयोगतः' आदि ( प. १०-४४), ९-९३ की टीका में 'यावन्मे स्थितभोजने' आदि ( प. १-४३ ) और९ - ९७की टीकामें ' का किया अपि संग्रहो' आदि ( प. १ - ४२ ) इत्यादि । इसी प्रकार इष्टोपदेश श्लोक ३५ की टीकामें ' वत्रे पतत्यपि ' आदि ( प. १- ६३ ) श्लोकको उधृत किया है ।
२. नलकच्छपुरे श्रीमन्नमिचैत्यालयेऽसिधत् ।
विक्रमाब्दशतेष्वेवा त्रयोदशसु कार्तिके ॥ अ. ध. प्रशस्ति ३१.