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आत्मानुशासनम् आत्मानुशासन श्लोक ९ की टीकामें 'सर्वदोषरहितः' का स्पष्टी करण करते हुए वहां टीकामें निम्न श्लोक उद्धृत किये गये हैं--
विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ।।
एतैर्दोषैविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । ये श्लोक यशस्तिलकचम्पू (उत्तरार्ध)पृ. २७४ पर पाये जाते हैं।
इसी प्रकार स्लोक १० को टोकामें ' मूढत्रयं मदावाष्टौ' आदि, श्लोक २६५ की टीकामें 'दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचित२ आदि तथा श्लोक २६६ की टीकामें ' अकर्ता निर्गुणः शद्धः ' आदि जो श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे भी उस यशस्तिलक (उत्तर खण्ड) में क्रमशः ३२४, २७० और २५२ पर पाये जाते हैं।
इसी प्रकार रत्नकरण्डश्रावकाचारमें भी श्लोक ४-२३ को टीकामें जो 'श्रद्धा तुष्टिर्भक्ति-' आदि श्लोक उद्धृत किया गया है वह यशरितलक (उ. खण्ड) में पृ. ४०४ पर पाया जाता है ।
सोमदेव सूरिके द्वारा विरचित यह यशस्तिलक शक संवत् ८८१ में बनकर समाप्त हुआ है४। इससे इतना तो निश्चित हो १. इसके पूर्व में जो यहां 'क्षुधा तृषा भयं दोषों' आदि श्लोक उद्धृत
है वह यशस्तिलकमें 'क्षुत्-पिपासा भयं द्वेषश्चिन्तनं' आदिके
रूपमें कुछ भिन्न उपलब्ध हेता है। २. ये श्लोक सौंदरनन्द काव्य (१६,२८-२९) में इस रूपमें पाये जाते हैं. दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ एनं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांवित स्नेहक्षयात केवलमेति शान्तिम् ।। ३. वहां 'सत्य' के स्थानमें 'शक्तिः ' और ' यस्यते' के स्थानमें
'यत्रते ' मात्र पाठभेद पाया जाता है। ४. शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेवाशीत्यधिकेषु (अङ्कतः ८८१ सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमास-मदनत्रयोदश्यां... ... ... दि निर्मापितमिदं काव्यमिति । यशस्तिलक (उ. खण्ड) पृ. ४१९.