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आत्मानुशासनम्
अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है तथा कज्जलको उगलता भी है उसी प्रकार संयमी साधु भी ज्ञान और चारित्रसे समुज्वल होकर स्व एवं अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है तथा कज्जलके समान कलुषताको उत्पन्न करनेवाले कर्मकी निर्जरा भी करता है । इस प्रकार वह आगमजनित सम्यग्ज्ञान के प्रभावसे अशुभ परिणतिको छोडकर शुभका आश्रय लेता है और अन्तमें फिर अपने शुद्ध स्वरूपको भी पा लेता है । कारण यह है कि जिस प्रकार सूर्य जबतक प्रभात समयरूप सन्ध्याकालको नहीं प्राप्त कर लेता है तबतक वह रात्रिके अन्धकारको नहीं हटा सकता है। इसी प्रकार संयमी साधु भी जबतक अशुभको छोडकर शुभका आश्रय नहीं ले लेता है तबतक वह कर्मरूप कालिमाको हटाकर शुद्ध स्वरूपको नहीं प्राप्त हो सकता है (१२०-२२) ।
यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आराधक जब शुभ परिणतिको स्वीकार करके तप व श्रुतमें अनुराग करता है तब उसके रागजनित कर्मका बन्ध न होकर मुक्ति कसे सम्भव है ? इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार सूर्य रात्रिके अन्धकारसे निकलकर जब प्रभात समयमें सन्ध्यारागको - प्रभातकालीन लालिमाको- धारण करता है तब उसका यह राग अभिवृद्धि (उदय) का कारण होता है। किन्तु इसके विपरीत जब वही सूर्य दिनके प्रकाशको छोडकर रात्रिके अन्धकारको आगे करता हुआ रागको- दिनान्तमें होनेवाली लालिमाको- धारण करता है तब उसका वह राग अधःपतनकाअस्तगमनका- कारण होता है। ठीक इसी प्रकारसे मिथ्याज्ञानसे रहित हुए विवेकी साधुके जो तप एवं श्रुतविषयक अनुराग होता है वह उसके अभ्युदय (स्वर्ग-मोक्ष) का कारण होता है तथा इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवके तो तद्विषयक अनुराग होता है वह उसके अधःपतनका- नरकादि दुर्गतिका- कारण होता है (१२३-२४) ।
जो यात्री किसी दूरवर्ती अभीष्ट स्थानको जाना चाहता है उसके साथ यदि योग्य मार्गदर्शक है, मित्र निरन्तर पासमें रहनेवाला है, नाश्ता भरपूर है, योग्य सवारी है, बीचमें ठहरनेके स्थान (पडाव) निरुपद्रव है, रक्षक साथमें है, मार्ग सरल व शीतल जलसे परिपूर्ण है, तथा सर्वत्र सघन