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प्रस्तावना
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छाया भी विद्यमान है; तो वह यात्री सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर निय प्रसे उस स्थानको जा पहुंचेगा । ठीक इसी प्रकारसे जो भव्य जीव मुक्ति-पुरीको जाना चाहता है उसके पास यदि सम्य - रज्ञानके समान मार्गदर्शक है, मित्रके समान पाप प्रवृत्तिसे बचानेवाली लज्जा निरन्तर पासमें स्थित है, नाश्ताका काम करनेवाला तप है, चारित्र सवारीके समान है, बीचमें ठहरनेका स्थान स्वर्ग है, उत्तम क्षमा आदि गुण रक्षकोंका काम करनेवाले हैं,रत्नत्रयस्वरूप मार्ग सरल (कुटिलतासे रहित) व कषायोपशमरूप जलसे परिपूर्ण है, तथा दयाभावना छायाका काम करती है, तो वह मुक्तिका पथिक भी नियमसे उस मुक्तिपुरीको प्राप्त कर लेनेवाला है। उसकी इस यात्रामें कोई भी विघ्न-बाधायें उपस्थित नहीं हो सकती हैं (१२५) ।
स्त्रीनिन्दा प्रस्तुत प्रकरणमें पूर्वोक्त मुक्तिपथिककी यात्रामें बाधक होनेकी सम्भावनासे कुछ श्लोकों (१२६-१३६) द्वारा स्त्रीजातिकी निन्दा करते हुए उन्हें दृष्टिविष सर्पसे भी भयानक विषैली, निरौषध विषवाली,परलोकविध्वंसक, क्रोध और प्रसन्नता इन दोनों ही अवस्थाओंमें प्राणसंहारक, ईर्ष्यालु,बाह्यमें ही रमणीय, मनुष्योंरूप मृगोंके वधका स्थान, तथा दूषित शरीरको धारण करनेवाली बतलाया है। उद्देश इसका यह रहा है कि जिस साधुने विषयोंसे विमुख होकर बाह्य व अभ्यंतर परिग्रहको छोडते हुए मुनिधर्मको स्वीकार कर लिया है वह कदाचित् उन स्त्रियोंकी वेषभूषादिको देखकर विचलित न हो जाय। इसीलिये उन्हें उक्त प्रकारसे घृणास्पद बतलाकर उनकी ओरसे साधुको सावधान मात्र किया है जो उचित ही है । यही कारण है जो इसी प्रकरणमें १२८ एक ओर मुक्तिललना और दूसरी ओर अस्थिचर्ममय शरीरवाली लोकप्रसिद्ध ललनाको दिखलाकर उनमेंसे किसी एक(मुक्ति-ललनाको)ही स्वीकार करनेकी प्रेरणा की गई है,क्योंकि, दोनोंका एक ही हृदयमें स्थान पाना संभव नहीं है।
कल्पना कीजिये कि कोई एक आर्यिकाओंका संघ है । अब उनमें जो प्रमुख आर्यिका है वह यदि अन्य आर्यिकाओंको स्वीकृत व्रतोंके आ. प्र.४