________________
आत्मानुशासनम्
परिपालनमें दृढ करना चाहती है तो आखिर वह भी तो उन्हें यही उपदेश देगी कि पुरुषोंको तुम भयानक विषके समान समझो । वे तुम्हें अनेक प्रलोभनों द्वारा मार्गभ्रष्ट करके इस लोक और परलोकके सुखसे वंचित करनेका प्रयत्न करेंगे। उनका कभी विश्वास नहीं किया जा सकता है-वे जिसे विश्वास देकर स्वीकार करते हैं उसका परित्याग करते हुए भी देखे जाते हैं। पुराणों में दक्ष राजा आदि कितने ही ऐसे भी अधम पुरुषोंके उदाहरण देखे जाते हैं कि जिन्होंने कामुकताके वशीभत होकर निजपूत्री आदिको भी पत्नीके रूप में ग्रहण किया है । अत एव उन्हें घृणास्पद समझकर उनकी ओरसे सदा सावधान रहना चाहिये । अन्यथा, तुम इस लोकके सुखो तो स्वयं स्वेच्छापूर्वक वंचित हो ही चुकी हो, फिर वैसी अवस्थामें परलोकके सुखसे-स्वर्ग-मोक्ष के अभ्युदयसे-भी वंचित रहोगी। ___ तात्पर्य यह है कि स्त्रियोंकी निंदा करते हुए भी अभिप्राय उनको निंदाका नहीं रहा है, किंतु साधुओं को अपने स्वीकृत व्रतोंमें दृढ करने का ही एक मात्र ग्रन्थकारका उद्देश रहा हैं। कारण यह है कि स्वभावसे न तो सर्वथा स्त्री ही निंदनीय है और न सर्वथा पुरुष भी। किंतु जो स्त्री या पुरुष पापाचरणमें निरत हो वही वस्तुतः निन्दाका पात्र हो सकता है, न कि स्त्रीमात्र या पुरुषमात्र । स्त्रियों में ऐसी उत्तम स्त्रियां भी संभव हैं जो तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं अन्य चरमशरीरी महापुरुषोंको भी उत्पन्न करती हैं२ । फिर भला वे स्त्रीपर्यायके धारण करने मात्रसे कैसे निंदनीय हो सकती हैं ? सती सीता एवं अंजना आदि अनेक स्त्रियोंने उस स्त्रीजातिको समुज्ज्वल किया है ।
इसी प्रकरणमें आगे श्री गुणभद्राचार्यने अपनी अनुपम प्रतिभाको प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि स्त्रीके विषय में जो अनुराग होता है
१. हरिवंशपुराण १७, ३-१५. ।
२. स्त्रीतः सर्वज्ञनाथः सुरनतचरणो जायतेऽबाधवोधस्तस्मात्तीयं श्रुताल्यं जनहितकथकं मोक्षमार्गावबोधः । तस्मात्तस्माद्विनाशो भवदुरितततः सौख्यमस्माद्विबाधं बुद्ध्ववं स्त्री पवित्रां शिवसुखकरणों सज्जनः स्वीकरोति ॥ सुभाषितरत्नसंदोह ९-११.