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आत्मानुशासनम्
[श्लो० १४९
नतानामाचार्या न हि नतिरताः साधुचरिताः तपास्येषु श्रीमन्मणय इव जाताः प्रविरलाः ॥१४९॥ एते ते मुनिमानिनः कवलिताः कान्ताकटाक्षेक्षण
रङगालम्नशरावसन्नहरिणप्रख्या भ्रमन्त्याकुलाः । मध्ये ॥१४९।। ये चाचार्गणामनुक्नता: स्वेच्छाचारिणस्तैः सह सांगत्यं न कर्तव्यमित्याह--- एते इत्यादि । कविलता: ग्रस्ताः । कटाक्षेक्षणैः कटाक्षः ईक्षणानि अवलोकितानि ते: । अङगेत्यादि- अङग आलग्गः च असौ शरश्च बाणस्तेन अवसन्नः पीडित: स चासो हरिणश्च तेन प्रख्याः सदृशाः । आकुला: विक्षिप्तचित्ताः। संघर्तुं व्यवस्थापयितुम् । विषयेत्यादिविषया एव अटव्याः स्थलम् उच्चैः प्रदेशः, तस्य तले उपरितनभागे स्वान् आत्मनः । मरु-- अवस्थामें मेरे इस आचार्य पदकी क्या प्रतिष्ठा रहेगी? बस इसी भयसेवे उन्हें दण्ड देनेमें असमर्थ हो जाते हैं । परिणाम इसका यह होता है कि उनकी उच्छृखल प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढती ही जाती है और इस प्रकारसे मुनिव्रतोंको उत्तम रीतिसे परिपालन करनेवाले विरले ही दिखने लगे हैं। यह साधुओंको दुरवस्था ग्रन्थकार श्री गुण भद्राचार्यके भी समयमें हो चुकी थी। इसीलिये उन्होंने यहां यह स्पष्ट संकेत किया है कि प्रतिष्ठा लोलुपी आचार्योंका अपने संघोंपर सघुचित शासन न रह सकनेसे समीचीन साधुधर्मका आवरण करनेवाले साधु कान्तिमान् मणियोंके समान बहुत ही थोडे रह गये हैं ॥१४९॥ ये जो अपनेको मुनि माननेवाले साधु हैं वे स्त्रियोंके कटाक्षपूर्ण अवलोकनोंके ग्रास बनकर शरीरमें लगे हुए बाणोंसे खेदको प्राप्त हुए हरिणोंके समान व्याकुल होकर परिभ्रमण करते हैं । परन्तु खेद है कि वे विषयल्प वनस्थलीके मध्यमें अपनेको कहींपर भी स्थिर रखनेके लिये समर्थ नहीं होते हैं । हे भव्य! तू वायुसे साडित हुए मेघोंके समान अस्थिरताको प्राप्त हुए इन साधुओंको संगतिको प्राप्त नहो॥विशेषार्थ-जिस प्रकार अहेरीके द्वारा मारे गये बाणोंसे भ्यथित हुए हिरण इधर ऊधार वनमें भागते हैं परन्तु कहीं भी अपनेको
यस ये चार्याणां ।