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याञ्चानिषेधः
संघतुं विषयाटवीस्थलतले स्वान् क्वाप्यहो न क्षमाः व्राजन्मरुदाहता चपलैः संसर्गमेभिर्भवान् ॥ १५०॥
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गेहं गुहाः परिदधासि दिशो विहायः संव्यानमिष्टमशनं 2 तपसोऽभिवृद्धिः ।
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दित्यादि - मरुता वायुना आहतं च तदभ्रं च तद्वत् चपलैः अप्रतिज्ञातव्रतैः च अस्थिरैः । एभि: शिथिलचारित्रः पुरुषः ॥ १५० ॥ एतैश्च सह संसर्गेस् अगच्छन्नेवंविधां सामग्री प्राप्य याञ्चारहितस्तिष्ठेति शिक्षां प्रयच्छन्नाह - गेहमित्यादि । विहाय : आकाशम् ।
स्थिर नहीं रख पाते हैं उसी प्रकार मुनिधार्मसे भ्रष्ट होकर भी अपने को मुनि माननेवाले जो साधु स्त्रियोंकी कटाक्षपूर्ण चितवन से पीडित होकर विषय - वनमें विचरण करते हुए कहींपर भी स्थिर नहीं रहते हैं, किन्तु एकसे दूसरे और दूसरे से तीसरे आदि विषयोंकी सदा अभिलाषा रखकर संतप्त होते हैं, वे मुनि ऐसे अस्थिरचित्त हैं जैसे कि वायु प्रेरित होकर बादल अस्थिर होते । ऐसे साधुओंके संसर्गमें रहकर कोई भी प्राणी आत्महित नहीं कर सकता है । इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो भव्य जीव अपना हित करना चाहते हैं उन्हें ऐसे भ्रष्ट साधुओं से दूर ही रहना चाहिये ॥ १५० ॥ हे आगमके रहस्य के जानकार साधु ! तेरे लिये गुफायें ही घर हैं, दिशायें एवं आकाश ही तेरा वस्त्र है उसे तू पहिन, तपकी वृद्धि ही तेरा इष्ट भोजन है, तथा स्त्रीके स्थानमें तू सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे अनुराग कर । इस प्रकार तुझे याचनाके योग्य कुछ भी नहीं है । अतएव तू वृथा ही याचनाजनित दीनताको न प्राप्त हो । विशेषार्थ - याचना करनेसे स्वाभिमान नष्ट होकर मनुष्य में दीनता उत्पन्न होती है । इसीलिये यहां साधुको याचनासे रहित होनेकी प्रेरणा करते हुए यह बतलाया है कि जिन पदार्थों की दूसरोंसे याचना की जाती है वे
मु (जै., नि.) गुहा । 2 मु (जं., नि.) संयान० ।