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आयुर्देहयोर स्थिरता
किमस्यान्यैरन्यैर्द्वयमयमिदं जीवितमिह
स्थितो भ्रान्त्या नावि स्वमिव मनुते स्थास्नुमपधीः ॥७२॥ सलिलं येन । एष कायः खलः अपकारकः । आयुतिम् अस्यास्नुताम् । अनुपतति अनुतकरोति । सततम् अनवरम् । अस्य जीवस्य । अन्यैः पुत्रकलत्रादिभिः । अन्यैः भिन्नैः । किम् । न किमपि कार्यम् । कुतो यतो जीवित द्वयमयं आयुर्देहाभ्यां निवृत्तम् 1 । तच्च द्वयं अस्यास्तु । अतोऽयमात्मा अपधी: अपगतविवेकः सन् । इह जीविते लोके वा । स्वम् आत्मानम् । स्थास्तुं भ्रान्त्या मनुते । नावीव स्थितः ॥ ७२ ॥ जीवितत्वेन प्रसिद्धस्य चोच्छवासस्य दुःखरूपत्वात् क्व प्राणिनां सुखं स्यादित्याह -
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घटिकाओं में स्थित जलके समान प्रतिसमय क्षोग हो रही है तथा यह दुष्ट शरीर भी निरंतर उस आयुकी गति ( नश्वरता ) का अनुकरण कर रहा है। फिर भला इस प्राणीका अपने से भिन्न अन्य स्त्री एवं पुत्र- मित्रादिसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । कारण यह कि यहां इन दोनों (आयु और शरीर ) स्वरूप ही तो यह जीवित है । फिर भी अविवेकी प्राणी नावमें स्थित मनुष्यके समान भ्रमसे अपनेको स्थिरशील मानता है ।। विशेषार्थ - जिस प्रकार अरहटकी घटिकाओंका जल प्रतिसमय नष्ट होता रहता है उसी प्रकार प्राणीको आयु भी निरंतर क्षीण होती रहती है। तथा जिस क्रमसे आयु क्षीण होती है उसी क्रम से उसका शरीर भी कृश होता जाता है । जिस आयु और शरीर स्वरूप यह जीवन है उन दोनों ही की जब यह दशा है तब पुत्र और स्त्री आदि जो प्रगटमें भिन्न हैं, वे भला कैसे स्थिर हो सकते हैं तथा उनसे प्राणीका कौन - सा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? कुछ भी नहीं । फिर भी जिस प्रकार नावके ऊपर बैठा हुआ मनुष्य अपने आधारभूत उस नाव के चलते रहनेपर भी भ्रांतिवश अपनेको स्थिर मानता है उसी प्रकार आयुके साथ प्रतिक्षण क्षीण होनेवाले शरीरके आश्रित होकर भी यह प्राणी अज्ञानता से अपनेको स्थिर मानता है । यदि वह यह समझने का प्रयत्न करे कि जिस प्रकार यह शरीर क्षीण होता जा रहा है उसी प्रकार आयु भी घटती जा रही है और मृत्यु निकट आ रही है, तो फिर वह उसको स्थिर रखनेका
(निर्वृतम्) |