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मोक्षमार्ग बाधका सामग्री
तास्त्वय्येव विलोमवतिनि भृशं भ्राम्यन्ति बद्धक्रुधः स्त्रीरूपेण विषं हि केवलमतस्तद्गोचरं मा स्म गाः ॥१२६॥ क्रुद्धाः प्राणहरा भवन्ति भुजगा दष्ट्वैव काले क्वचित्
तेषामौषधयश्च सन्ति बहवः सद्यो विषब्युच्छिदः । दंदह्यते अत्यर्थं संतप्यते । सर्वतः सर्वण प्रकारेण । विलोमवतिनि प्रतिकूल प्रतिनि । भ्राम्यन्ति भ्रमन्ति । बद्ध क्रुध: आबद्धकोपाः । तद्गोचरं स्त्रीविषयम् मा स्म गाः मा गच्छ ॥ १२६ ।। क्रुद्धा इत्यादि । दष्ट्वैव भक्षित्वा । काले क्वचित् कुलिकवेलायाम् । सद्य: झटिति । विष व्युच्छिद: विषविनाशिकाः । हन्युः मारयेयुः । पुरा अन्य जन्मनि । इह च अस्मिन् जन्मनि । सम्यग्दर्शनादि आराधनाओंका आराधान करता है उसे मुक्ति पदकी प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं उपस्थित हो सकती है । इसपर यह शंका हो सकती थी ऐसी कौन-सी वे बाधायें हैं जिनकी कि मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हुए साधु के लिये सम्भावना की जा सकती है ? इस शंकाके निराकरणस्वरूप ही यहां बतलाना चाहते हैं कि उक्त साधुके मार्गमें स्त्री आदिके द्वारा बाधा उपस्थित की जा सकती है, अतएव साधुज. नको उनकी ओरसे विमुख रहना चाहिये । कारण यह कि ये सर्पकी अपेक्षा भी अधिक कष्ट दे सकती हैं । लोकमें सर्पोको एक दृष्टिविष जाति प्रसिद्ध है । इस जातिका सर्प जिसकी ओर केवल नेत्रसे ही देखता है वह विषसे संतप्त हो जाता है । ग्रन्यकार कहते हैं कि उक्त जातिके सर्पोको दृष्टिविष न कहकर वास्तवमें उन स्त्रियोंको दृष्टिविष कहना चाहिये जिनकी कि अर्ध दृष्टिके (कटाक्षके) पडने मात्रसे ही प्राणी विषसे व्याप्त-कामसे संतप्त-हो उठता है। जो साधु उनकी ओरसे विरक्त रहना चाहता है उसे वे अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अनेक प्रकारको हाव-भाव एवं विलासादिरूप चेष्टाए करती हैं । इसलिये यहां यह प्रेरणा की गई है कि जो भव्य प्राणी अपना हित चाहते हैं वे ऐसी स्त्रियोंके समागमसे दूर रहें ॥१२६॥ सर्प तो किसी विशेष समयमें क्रोधित होते हुए केवल काटकर ही प्राणोंका नाश करते हैं, तथा वर्तमान में उनके विषको नष्ट करनेवाली