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मात्मानुशासनम् [श्लो० १३६ननु शुचिषु शुभेषु प्रीतिरेष्वेव साध्वी मदनमधुमदान्धे प्रायशः को विवेकः ॥ १३६ ॥ प्रियामनुभवत्स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ल्हादते ।
प्रशस्तेषु । एष्वेव अमृतमयूखाद्यर्थेषु । साध्वी शोभना प्रीतिः । मदनमधुमदान्धे मदन एव मधु मद्यं तेन मदान्धे । प्रायश: बाहुल्येन । को विवेक: न कोऽपि ॥ १३६ ॥ मनःपूर्विका च स्त्रोशरोरे रति पुंपाम्, तेन च नपुंसकेन कथं तेषामभिभवो युक्त: इत्याह--प्रियामित्यादि स्वयं प्रियामनुभवत् सत् कातरम् अधीरं भवति । केवलं परम् एकाकी वा। परेषु चक्षुरादिषु प्राण्यन्तरेषु विषयिषु अनुभवत्सु । तां प्रियाम् । ल्हादते उल्लासं गच्छति । नपुंसकं त्वितिनपुंसकमिति पुनः न शब्दतः न केवलं शब्दतो नपुंसकम् अर्थतश्च वाच्यापेक्षयापि ।
हिताहितका विवेक नहीं रहता है । इसलिये वे मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण स्त्रीके उस निन्द्य शरीरमें तो अनुराग करते हैं, किन्तु उन व्रत-संयमादिमें अनुराग नहीं करते जो कि उन्हें संसारके दुःखसे उद्धार करानेवाले हैं ।। १३६ ॥ जो मन प्रियाका अनुभव करते हुए केवल अधीर होता हैउसे भोग नहीं सकता है, तथा जो दूसरे विषयी जनोंको--इन्द्रियोंको.. उसका भोग करते हुए देखकर भले प्रकार आनन्दित होता है, वह मन तो शब्दसे और अर्यसे भी निश्चयतः नपुंसक है । फिर इस नपुंसक मनके द्वारा जो सुधी (उत्तम बुद्धिका स्वामी) शब्द और अर्थ दोनों ही प्रकारसे पुरुष है वह कैसे जीता जाता है ? अर्थात् नहीं जीता जाना चाहिये था ॥ विशेषार्थ-- जो लोग यह कहा करते हैं कि मन अतिशय बलिष्ठ है, उसकी प्रेरणासे ही प्राणियोंकी प्रवृत्ति विषयभोगादिमे होती है। उन्हें यह समझना चाहिये कि वह मन जिस प्रकार शब्दकी दृष्टिसे- व्याकरणकी अपेक्षा- नपुंसक (नपुंसकलिंग) है उसी प्रकार वह अर्थसे भी नपुंसक है। कारण यह कि लोकमें नपुंसक वही गिना जाता है जो कि पुरुषार्थमें असमर्थ होता है । सो वह मन ऐसा ही है, क्योंकि जिस प्रकार नपुंसक स्त्रीके भोगनेकी अभिलाषा रखता हुआ भी इन्द्रियकी विकलतासे उसे