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स्त्र्यनुरागेऽविवेकः कारणम् तव युवतिशरीरे सर्वदोषेकपात्रे रतिरमृतमयूखाद्यर्यसाधर्म्यतश्चेत् ।
स्त्रीशरीरे चन्द्रादिधर्मारोपात् प्राणिनामासक्तिरसत्केत्याह- तवेत्यादि । एकपात्रे एकम् असाधारणम् । पात्रं भाजनम् । अमृतेत्यादि-- अमृततुल्यमयूखाः किरणा यस्य वा अमृतमयूखश्चन्द्रः स आदिर्येषां पद्मादीनां ते च ते अर्थाश्च ते (तेषां) साधर्म्यतः । मुखस्य हि चन्द्रेण साधर्म्यम् , चक्षुषोः पद्मपत्रः, केशानां भ्रमरैः, दन्तानां हीरकैः, इत्याद्यथैः सादृश्यात् । शुचिषु निर्मलेषु पवित्रेषु वा । शुभेषु
वास्तव में उतना दुःखदायक नहीं है- उससे अधिक दुःख देनेवालीं तो स्त्रियां हैं । अतएव उन स्त्रियोंको ही विषम विष समझना चाहिये। कारण कि उपर्युक्त विषकी तो चिकित्सा भी की जा सकती है, किन्तु स्त्रीरूप विषकी चिकित्सा नहीं की जा सकती है ।। १३५ ॥ हे भव्य ! सब दोषोंके अद्वितीय स्थानभूत स्त्रीके शरीरमें यदि चन्द्र आदि पदार्थोंके साधर्म्य (समानता) से तेरा अनुराग है तो फिर निर्मल और उत्तम इन्हीं (चन्द्रादि) पदार्थों के विषयमें अनुराग करना श्रेष्ठ है। परन्तु कामरूप मद्यके मद (नशा) से अन्वे हुए प्राणीमें प्रायः वह विवेक ही कहां होता है ? अर्थात् उसमें वह विवेक ही नहीं होता है । विशेषार्थ---- स्त्रीका शरीर अतिशय निन्द्य एवं अनेक दोषोंका स्थान है। फिर भी कविजन उसके मुखको चन्द्रकी, नेत्रोंको कमलकी, दांतोंको हीरेकी, तथा स्तनोंको अमृतकलशों आदिकी उपमा देते हैं जिससे कि बेचारे भोले प्राणी उसके निन्द्य शरीरको सुन्दर मानकर उसमें अनुराग करते हैं। वे यह नहीं समझते कि जिन चन्द्रादिकी समानता बतलाकर स्त्रीके शरीरको सुन्दर बतलाया जाता है वास्तव में तो वे ही सुन्दर कहलाये, अतः उनमें ही अनुराग करना उत्तम है, न कि उस घृणित स्त्रीके शरीरमें । परन्तु क्या किया जाय ? जिस प्रकार मद्यपान करनेवाले मनुष्यको उन्मत्त हो जानेके कारण कुछ भी भले बुरेका ज्ञान नहीं रहता है उसी प्रकार कामसे उन्मत्त हुए प्राणियोंको भी अपने
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