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प्रस्तावना
इसलिये जिस प्रकार रोगी मनुष्य तीक्ष्ण (अतिशय कडवी) औषधिसे भयभीत नहीं होता है उसी प्रकार आत्महितैषी भव्य जीवोंको इससे भयभीत नहीं होना चाहिये। __आगे श्लोक १६.१७ में मिथ्यात्वरूप घातक व्याधिसे पीडित भव्य जीवकी अज्ञान बालकके समान सुकुमार क्रिया करनेका निर्देश करके यह बतलाया है कि जिस प्रकार विषम भोजनसे उत्पन्न हुए ज्वरसे पीडित एवं तीव्र प्यासका अनुभव करनेवाले क्षीणशक्ति रोगीके लिये सुपाच्य पेय (दूध व फलोंका रस आदि) आदिकी व्यवस्था हितकर होती है उसी प्रकार विषयसेवनसे उत्पन्न मोहसे संयुक्त होकर तीव्र विषयतृष्णाजनित संतापको प्राप्त हुए तेरे लिये पेयादिके समान अणुव्रतादिका आचरण ही हितकर होगा।
__ श्लोक १०८ में कहा गया है कि परिग्रहका त्याग विवेकबुद्धिसे मोहके नष्ट करनेवाले जीवको इस प्रकारसे अजर-अमर कर देता है जिस प्रकार कि कुटीप्रवेश क्रिया शरीरको विशुद्ध करके प्राण को अजर-अमर (दीर्घायु) कर देती है।
___ यह कुटीप्रवेश क्रिया क्या है, इसके लिये आयुर्वेद ग्रन्थोंमें कहा गया है कि रसायनोंका प्रयोग दो प्रकारका होता है कुटीप्रावेशिक और वातातपिक । इनमें कुटीप्रावेशिक मुख्य हैं । कुटीका अर्थ झोपडी होता है । तदनुसार आयुर्वेदिक उपकरणोंकी सुलभता युक्त नगरके भीतर किसी ऐसे भवनमें, जहां न वायुका संचार हो और न भयके कारण भी विद्यमान हों, उत्तरदिशागत उत्तम स्थानमें एकके भीतर दूसरी और दूसरीके भीतर तीसरी इस प्रकार तीन कोठरियोंवाली कुटीकी रचना करना चाहिये। यह कुटी छोटे गवाक्षों (झरोखों) से सहित; धुआँ, धूप, धूलि, सर्प, स्त्री 'एवं मूर्ख जन आदिसे रहित; वैद्यके उपकरणों (औषधियां आदि) से सुसज्जित तथा साफ-सूथरी होना चाहिये । जो व्यक्ति उस क्रिया करानेका इच्छुक है उसे किसी शुभ दिनमें पूज्य गुरुजनोंकी पूजा करके उस कुटीके भीतर प्रवेश करना चाहिये । उक्त रसायनके अभिलाषी व्यक्तिको पवित्र, सुखी,