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मात्मानुशासनम्
श्लोक २६० में कहा गया है कि जो साधु अतिशय वृद्धिंगत तपके प्रभावसे प्राप्त हुई ज्ञान-ज्योतिके द्वारा अन्तस्तत्त्वको जानकर प्रसन्नताको प्राप्त हैं तथा वनके भीतर ध्यानावस्थामें हरिणियों के द्वारा विश्वासपूर्वक देखे जाते है वे साधु धन्य हैं । ऐसे ही धीर साधु अपने अलौकिक आचरणके द्वारा चिरकाल तक दिनोंको बिताया करते हैं । अब वैराग्यशतकके इस श्लोकको भी देखिये
गङगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य । किं तैर्भाव्यं मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशङ्काः
कण्डूयन्ते जरठहरिणाः स्वाङ्गमङ्गे मदीये ॥९८॥ यहां योगी विचार करता है कि गंगा नदीके किनारे हिमालय पर्वतकी शिलाके ऊपर पद्मासनसे स्थित होकर आत्मध्यानके अभ्यासकी विधिसे योगनिद्राको प्राप्त हुए मेरे क्या वे उत्तम दिन कभी नहीं होंगे कि जिनमें वृद्ध हिरण निर्भय होकर मेरे शरीरसे अपने शरीरको खुजलावेंगे ।
उपर्युक्त दोनों ही श्लोकमें ध्यानको वह उत्कृष्ट अवस्था निर्दिष्ट की गई है कि जिसमें निर्भय एवं निरीह योगीके स्थिर शरीरको देखकर हिरण हिरणियोंको यह कल्पना भी नहीं होती है कि यह कोई मनुष्य है। इसीलिए वे निर्भय होकर अपने शरीरको उसके शरीरसे रगडने लगते हैं ।
इसी प्रकार आत्मानुशासनके २५९वें श्लोकमें जिस निर्ममत्व एवं समताभावको अंकित किया गया है वह वैराग्यशतकके ९१ और ९४-९६ श्लोकोंमें दृष्टिगोचर होता है।
आत्मानुशासन और आयुर्वेद प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता श्री गुणभद्राचार्य केवल सिद्धान्त एवं न्यायव्याकरणादि विषयों में ही पारंगत नहीं थे,बल्कि वे आयुर्वेदके भी अच्छे ज्ञाता थे; यह उनके इसी ग्रन्थसे सिद्ध होता है । उन्होंने ग्रंथके प्रारंभमें यह कह दिया है कि यहां जो उपदेश दिया जा रहा है वह यद्यपि सुनके समय कुछ कटुक प्रतीत होगा, तो भी उसका फल मधुर होगा।