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प्रस्तावना
इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसोऽयं स्फुरित परिमलोऽसौ स्पर्श एष स्तनानाम् । इति हतपरमार्थरिन्द्रियैर्धाम्यमाणः
स्वहितकरणधूर्तेः पञ्चभिर्वञ्चितोऽस्मि ।। ५६ ॥
अर्थात् स्त्रियोंमें कानोंको सुखप्रद मधुरगीत, नेत्रोंको मुग्ध करनेवाला यह नृत्य, जिव्हाको सन्तुष्ट करनेवाला यह रस (अधरामृत) नासिकाको मुदित करनेवाला वह कर्पूरादिके लेपनका सुन्दर गन्ध और यह स्पर्शन इन्द्रियको हर्षित करनेवाला स्तनोंका स्पर्श है । इस प्रकार मानकर परमार्थसे पराङ्मुख हुई इन धूर्त पांचों इन्द्रियोंके द्वारा भ्रमणको प्राप्त अपने अपने विषययें आसक्त-कराया जानेवाला मैं ठगा गया हूं।
श्लोक १५१ में साधुको लक्ष्य करके यह कहा गया है कि तेरे पास गृहके स्थानमें रहनेके लिये गुफायें विद्यमान हैं, पहिननेके लिये दिशारूप वस्त्र है,इष्ट भोजन तपकी वृद्धि है,अर्थ [धन के स्थानमें आगमका अर्थ (रहस्य ) है,तथा कलत्रके स्थानमें उत्तमोत्तम गुण हैं। इस प्रकार तेरे लिये मांगनेके कुछ भी शेष नहीं है । अतएव तू व्यर्थमें याचनाको प्राप्त न हो। इसकी तुलना वैराग्यशतकके इस श्लोकसे कीजिये--
पाणिः पात्रं पवित्रं नमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्नं विस्तीर्णं वस्त्रमाशादशकमचपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी । येषां निःसंगताङगीकरणपरिणतस्वान्तसंतोषिणस्ते
धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ॥९९।।
यहां भी यही बतलाया है कि जिन साधुओंके पास अपना हाथ ही पवित्र पात्र है, भ्रमणसे प्राप्त हुआ भैक्ष भोजन है, विस्तृत दश दिशायें वस्त्र हैं, तथा पृथिवी ही स्थिर व विशाल शय्या है; इस प्रकार जो अपरिग्रह व्रतको स्वीकार करनेसे परिपक्व अवस्थाको प्राप्त हुए अपने मनसे सन्तुष्ट रहते हैं और इसीलिये जिन्होने दीनताको उत्पन्न करनेवाले व्यतिकरका परित्याग कर दिया है ऐसे वे साधू धन्य हैं और वे ही कर्मका निर्मूलन करतें हैं। --.......