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आत्मानुशासनम्
है। समाधिशतक और आत्मानुशासनविषयक मंगलपद्योंका तो छन्द (वसन्ततिलका) भी समान है ।
तीनोंके प्रस्तावनावाक्य निम्न प्रकार है--
श्रीपूज्यपादस्वामी मुमुक्षूणां मोक्षोपायं मोक्षस्वरूपं चोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वाणो येनात्मेत्याह--
(समाधिशतक) श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नत: शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह
(रत्नकरण्ड) बृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य १ विषयव्यामुग्धबुद्धे : संबोधनव्याजेन सर्वसत्त्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वाणो लक्ष्मीत्याद्याह
(आत्मानुशासन) इन तीनों ही प्रस्तावनावाक्योंमें समानरूपसे अपने अपने ग्रन्थको रचनाके इच्छुक तीनों ही आचार्यों (पूज्यपाद, समन्तभद्र और गुणभद्र) का नामनिर्देश करके उन्हें निर्विघ्नतापूर्वक शास्त्रसमाप्ति आदिकी अभि
१. यहां लोकसेनको गुणभद्रका बडा धर्मभ्राता निर्दिष्ट किया गया है। परन्तु वह प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता । कारण इसका यह है कि उत्तरपुराणको अन्तिम प्रशस्तिमें-- जहांसे उसे स्वयं लोकसेन प्रारम्भ करते हैं-यह स्पष्ट बतलाया गया है कि लोकसेन उन गुणभद्राचार्यके मुख्य शिष्य थे, बहत् धर्मभ्राता नहीं। साथ ही वहां जो उनके लिये 'अविकलवृत्तः' और 'मुनीशः' विशेषण दिये गये हैं उससे उनकी बुद्धि विषयोंमें व्यामुग्ध थी, वह भी संदेहास्पद ही दिखता है । प्रशस्तिका वह श्लोक निम्न प्रकार है
विदितसकलशास्त्रो लोकसेनो मुनीशः
कविरविकलवृत्तस्तस्य शिष्येषु मुख्यः । ___ सततमिह पुराणे प्रार्थ्य साहाय्यमुच्च- गुरुविनयमनैषीन्मान्यतां स्वस्य सद्भिः ॥२८॥