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आत्मानुशासनम् [श्लो० १५शमबोधवृत्ततपसा पाषाणस्येव गौरवं पुंसः । पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ॥ १५ ॥ मिथ्यात्वातङ्कवतो हिताहितप्राप्त्यनाप्तिमुग्धस्य ।
बालस्येव तवेयं सुकुमारैव क्रिया क्रियते ॥१६॥ शमबोधवृत्तेत्यादि । गौरवं महत्त्वम् । पाषाणस्येव यथा पाषाणस्य गौरवं विशिष्टफलाप्रसाधकमबहुमूल्यत्वात् तथा शमादीनामपि । तदेव पूज्यं विशिष्टफल. साधकं भवति सम्यक्त्वसंयुक्तमनय॑त्वात् । महामगेरिव ॥१५॥ एवंविधसम्यक्त्वाराधने प्रवृत्तस्य आराधयितुः स्वरूपं निरूप्य भयमुत्सारयन्नाह-- मिथ्यात्वेत्यादि । सद्यः प्राणहरो व्याधिरातङ्कः । मिथ्यात्वमेव आतङ्क: तेन
और तप इनका महत्त्व पत्थरके भारीपनके समान व्यर्थ है। परन्तु वही उनका महत्त्व यदि सम्यक्त्वसे सहित है तो वह मूल्यवान् मणिके महत्वके समान पूजनीय है ॥ विशेषार्थ- साधारण पाषाण और मणिरूप पाषाण ये दोनों यद्यपि पाषाणस्वरूपसे समान हैं, फिर भी गुणकी अपेक्षा उन दोनोंमें महान् अन्तर है । कारण कि यदि किसी मनुष्यके पास विशाल भी साधारण पाषाण हो तो उससे उसका कोई भी अभीष्ट सिद्ध होनेवाला नहीं है, बल्कि वह उसके लिये भारभूत (कष्टप्रद) ही बना रहता है। किन्तु जिसके पास वह मणिरूप पाषाण है वह . उससे अपने अभीष्ट प्रयोजनको अवश्य सिद्ध कर लेता है। कारण कि उसका मूल्य बहुत अधिक है । इससे उसकी जनसमुदायमें प्रतिष्ठा भी अधिक होती है । ठीक इसी प्रकारसे जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित है वह भले ही शान्ति, ज्ञान, चारित्र एवं तपका भी आचरण क्यों न करे; किन्तु इससे वह कल्याणके मार्ग में नहीं प्रवृत्त हो पाता है । कारण कि सम्यग्दर्शनके विना उक्त शान्ति आदिका कोई मूल्य नहीं होता। किन्तु मणिके समान बहुमूल्य सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेनेपर उन सब शान्ति आदिका महत्त्व बढ जाता है। उस समय वे प्राणीको मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करके शाश्वतिक सुखकी प्राप्तिमें सहायक हो जाते हैं । अतएव उक्त शान्ति आदिकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन ही विशेष. पूज्य है ॥१५॥ मिथ्यात्रूप रोगसे सहित होकर हितकी प्राप्ति और अहितके परिहारको