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आत्मानुशासनम्
श्रद्धानं द्विविधं त्रिधा दशविधं मौडचाद्य गोडं सदा संवेगादिविर्वाधतं भवहरं व्यज्ञानशुद्धिप्रदम् ।
[ श्लो० १०
सर्वसुखदं सर्वमुखं परिपूर्ण मोक्षसुखं तस्य दायकं सर्वेषां वा प्राणितां सुखदायकम् । श्रयन्तु आश्रयन्तु आराधयन्तु । थिये वाह्याभ्यन्तरलक्ष्मीसिद्धयर्थं ॥ ९ ॥ तत्सिद्धचै च तेन भगवता सतामुपायः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसाधनारूपी दर्शितस्तत्र सम्यग्दर्शनात्धनास्वरूपं दर्शयन्नाह श्रद्वातमित्यादि । श्रद्धानं सम्यग्दर्शन विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मनः स्वरूपम् । तत् द्विविध तावत् नैसर्गिकमधिगमं च।
प्राणियोंको हिताहितका वोध प्राप्त होता है । इस प्रकार जब प्राणीको हिताहितविवेकके साथ वस्तुस्थितिका ज्ञान हो जाता है तब उसका सम्यक्चरित्र ( तप-संयम आदि) की ओर झुकाव होता है और इससे वह सम्पूर्ण कर्मोंको आत्मा से पृथक् करके शीघ्र ही अविनश्वर निराकुल सुखको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार परम्परासे उसके मनोरथको पूर्तिका मूल कारण रागादि दोषोंसे रहित सर्वदर्शी आप्त ही ठहरता है । अतएव सुखाभिलाषी प्राणियोंको ऐसे ही आप्तका स्मरण, चिन्तन एवं उपासना आदि करनी चाहिये ॥ ९ ॥ तत्त्वार्थश्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है । वह निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका; औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकके भेदसे तीन प्रकारका; तथा आगे कहे जानेवाले आज्ञासम्यक्त्व आदि के भेद से दस प्रकारका भी है । मूढता आदि ( ३ मूढता, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंका - कांक्षा आदि) दोषोंसे रहित होकर संवेग आदि गुणोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ वह श्रद्धान ( सम्यग्दर्शन) निरन्तर संसारका नाशक; कुमति, कुश्रुत एवं विभंग इन तीन मिथ्याज्ञानोंकी शुद्धि ( समीचीनता) का कारण ; तथा जीवाजीवादि सात अथवा इनके साथ पुण्य और पापको लेकर नौ तत्त्वोंका निश्चय करानेवाला है । वह सम्यग्दर्शन स्थिर मोक्षरूप भवनके ऊपर चढनेवाले बुद्धिमान् शिष्योंके लिये प्रथम सीढी के समान है । इसीलिये इसे चार आराधनाओंमें प्रथम आराधनास्वरूप कहा जाता है | विशेषार्थ - - यहां सम्यग्दर्शनके जो दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं वे हैं