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सम्यग्दर्शनस्वरूपम्
निश्चिन्वन् नव सप्ततत्त्वमचलप्रासादमारोहतां सोपानं प्रथमं विजेयविदुषामाद्येयमाराधना ॥ १० ॥
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त्रिधा औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकं च । दशविधं वक्ष्यमाणाज्ञासम्यक्त्वादिभेदात् । मौढ्याद्यपोढं मौढयादिभिः पञ्चविशनिदोषैः रहितम् । के ते मढवाय दोषा इत्याह--' मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथातायतनानि पट् । अष्टौ शङकायश्चेति दृग्दोषा पञ्चविंशतिः ॥ ' मूढ त्रयं लोक-समय-देवता मूढलक्षणम् । अष्टमदा जातिकुलैश्वर्यादयः । पडनायतनानि मिथ्यादर्शन- ज्ञान - चारित्राणि त्रीणि त्रयश्च तद्वन्तः पुरुषाः अथवा अनर्वज्ञ-अ सर्वज्ञायतन-अनर्वज्ञज्ञान सर्वज्ञज्ञानममवेत पुरुषाऽपर्वज्ञानु
निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शन । इनमें जो तत्त्वार्थश्रद्धान साक्षात् बाह्य उपदेश आदिकी अपेक्षा न करके स्वभावसे ही उत्पन्न होता है उसे निसर्गज तथा जो बाह्य उपदेशकी अपेक्षासे उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । प्रत्येक कार्य अन्तरङग और बाह्य इन दो कारणोंसे उत्पन्न होता है । तदनुसार यहां सम्यग्दर्शनका अन्तरङग कारण जो दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है वह तो इन दोनों ही सम्यग्दर्शनोंमें समान है । विशेषता उन दोनों में इतनी ही है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन साक्षात् बाह्य उपदेशको अपेक्षा न करके जिनमहिमा आदिके देखने से प्रगट हो जाता है, परन्तु अधिगमजं सम्यग्दर्शन वाह्य उपदेशके विना नहीं प्रगट होता है। इसके आगे जो उसके तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं वे अन्तरङग कारणकी अपेक्षासे हैं । यथा- जो सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उत्पन्न होता है उसे औपशमिक तथा जो इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षयसे उत्पन्न होता है उते क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इनके उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशमसे तथा देशवाती स्पर्धकस्वरूप सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहा जाता है । आगे जो यहां उस सम्यग्दर्शनके दस भेदोंका निर्देश किया उनका वर्णन