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विषयाशया तपस्त्यजतां निन्दा
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जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिविधिः । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता ॥१६३॥ परां कोटि समारूढौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयोः । यस्त्यजेत्तपसे चक्रं यस्तपो विषयाशया ॥१६४॥
स्वकार्यकर्ता स्यादित्याह- जीविताशेत्यादि । विधिविधिः विधिः कर्म, विधि स्रष्टा । आशानिराशता आशाया: निराशता नि:काङ्क्षता, सर्वथा विषयाशारहिततेत्यर्थः ॥ १६३ ॥ साम्राज्यं त्यक्त्वा आशानिराशतामवलम्ब. मानस्थ, तपश्च त्यक्त्वा साम्राज्यमाश्रयत: फलमादर्शयन् परामित्यादिश्लोकद्वयमाह- परां कोटिं परमप्रकर्षम् । तपसे तपोनिमित्तम् । चक्र चक्रवर्तित्वम् ॥ १६४ ॥ त्यजत्वित्यादि । स्वोत्यं विषयनिरपेक्षं कर्मविविक्तात्मआशा- जीनेकी इच्छा और विषयतृष्णा- निःशेषतया नष्ट हो चुकी है उनका वह कर्म भला क्या अनिष्ट कर सकता है ? कुछ भी नहीं- यदि वह उनके जीवन और धनका अपहरण करता है तो वह उनके अभीष्टको ही सम्पादित करता है ॥ १६३ ॥ जो मनुष्य तपके लिये चक्रवर्तीकी विभूतिको छोडता है तथा इसके विपरीत जो विषयोंकी अभिलाषासे उस तपको छोडता है वे दोनों ही क्रमशः स्तुति और निन्दाकी उत्कृष्ट सीमापर पहुंचते हैं ॥ विशेषार्थ--- जो विवेकी जीव चक्रवर्ती जैसी विभूतिको पाकर भी उसे आत्महितमें बाधक जानकर तुच्छ तृणके समान छोड देता है और निग्रन्थ होकर दुर्धर तपको स्वीकार करता है वह सबसे अधिक प्रशंसाके योग्य है । इसके विपरीत जो कारण पाकर विर. वितको प्राप्त होता हुआ प्रथम तो राज्यवैभवको छोडकर तपको स्वीकार करता है, और फिर पीछे उन्हीं पूर्वभुक्त भोगोंकी अभिलाषासे उस दुर्लभ तपको छोडकर पुनः उस सम्पत्तिका उपभोग करने लगता है, वह सबसे अधिक निन्दाका पात्र है-- उसकी अज्ञानताको धिक्कार है ॥ १६४ ।। चूंकि तपका फल जो सुख है वह सुख अनुपम-- समस्त संसारी जीवोंको दुर्लभ, कर्मकी अपेक्षा न करके केवल आत्ममात्रकी अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाला, और सदा रहनेवाला (अविनश्वर) है; सी. लिये यदि चक्रवर्ती उस तपके लिये साम्राज्यको छोड़ देता है तो वह