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आत्मानुशासनम् [श्लो० ४७वार्तादिभिविषयलोल विचारशन्य। - -- क्लिश्नासि यन्मुहुरिहार्यपरिग्रहार्थम् । तच्चेष्टितं यदि सकृत्परलोकबुद्धया
न प्राप्यते ननु पुनर्जननादि दुःखम् ॥४७॥ रित्याशङ्क्याह- - वार्तेत्यादि । कृषि (:)प(पाशुपाल्यं वाणिज्या च वार्ता सा आदिर्यासां दण्डनीत्यादीनां ताभिः । विषयलोल विषयलम्पट । विचारशून्यम् इत्यम् अर्थोपार्जन कृतं कि मम परिणामपथ्यं न वेति विचारमकृत्वा । यत् क्लिश्नासि आत्मानम् आयासयसि । मुहुः पुनः पुनः । इह संसारे अर्थपरिग्रहार्थम् अर्थोपार्जनार्थम् । तच्चेष्टितम् आत्मनः क्लेशकारि दुर्धरानुष्ठानम् । यदि सकृत् कदाचित् परलोकबुद्धया क्रियते ।। ४७ ।। परलोकचेष्टिते ही है, अतएव उसको उपार्जित करना योग्य ही है । ऐसा विचार करने वालोंको लक्ष्यमें रखकर यहां यह बतलाया गया है कि वैसी सम्पत्ति धर्म, सुख, ज्ञान और सुगति इनमेंसे किसीको भी सिद्ध नहीं कर सकती है । कारण यह कि धर्मका स्वरूप यह है कि जो दुखको दूर करे । वह धर्म समस्त धन-धान्यादि परिग्रह एवं राग-द्वेषादिको छोडकर यथाख्यातचारित्रके प्राप्त होनेपर ही हो सकता है, अतः उसको सिद्धि पापोपादक सम्पत्तिके द्वारा कभी नहीं हो सकती है । इसी प्रकार सुख भी वास्तविक वही हो सकता है जिसमें दुखका लेश न हो। ऐसा सुख उस सम्पत्तिसे सम्भव नही है। सम्पत्तिके द्वारा प्राप्त होनेवाला सुख आकुलताको उत्पन्न करनेवाला है तथा वह स्थायी भी नहीं है । अतएव वह सम्पत्ति सुखको भी साधक नहीं है । तथा जिसके प्रगट होनेपर समस्त विश्व हाथकी रेखाओंके समान स्पष्ट दिखने लगता है वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान कहलानेके योग्य है। वह ज्ञान (केवलज्ञान) भी उक्त संपत्तिसे सिद्ध नहीं हो सकता। जिस गतिसे पुनः संसारमें आगमन नहीं होता है वह पंचमगति (मोक्ष) ही सुगति है । वह सम्यग्दर्शन आदिरूप अपूर्व रत्नत्रयके द्वारा सिद्ध होती है, न कि धन-धान्य आदिके द्वारा । अतएव वैसा विचार करना अविवेकतासे परिपूर्ण है ॥४६।। है विषयलम्पट! तू यहां विषयोंमें मुग्ध होकर विवेकसे रहित होता हुआ
। म (नि)शन्यः ।