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आत्मानुशासनम् एक और भोक्ता दूसरा नहीं हो सकता है । साथ ही वे सुख व ज्ञानस्वरूप भी है, अन्यथा उसको जड मानना पडेगा। इस प्रकार अन्तमें सिद्धोंके स्वरूप और उनके स्वाधीन सुखकी प्ररूपणा करके प्रस्तुत ग्रन्थको समाप्त किया गया है ।
आत्मानुशासनमें विशेष उदाहरण किसी भी विषयका वर्णन यदि उदाहरणपूर्वक किया जाता है तो वह सरलतासे समझने में आ जाता है। जैसे - कहा भी गया है ‘दृष्टान्ते हि स्फुटायते मतिः' अर्थात् दृष्टान्त मिलनेपर बुद्धि स्पष्ट हो जाती है । तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ में भी विषयको विशद करने के लिये कुछ विशेष उदाहरण दिये गये हैं । यथा---
१. श्लोक ३२ में पुरुषार्थको व्यर्थताको प्रगट करनेके लिये युद्ध में शत्रुओं द्वारा पराजित इन्द्रका उदाहरण दिया गया है । इस संबंधका विष्णपुराण । अंश १, अध्याय ९) में निम्न कथानक उपलब्ध होता है -
किसी समय शंकरके अंशभूत दुर्वासा ऋषि पृथिवीपर विचरण कर रहे थे । उस समय उन्हें एक विद्याधरीके हाथमें एक दिव्य माला दिखायी दी। उस सुन्दर मालाको देखकर उन्होंने उक्त विद्याधरीसे उसे मांग लिया । तदनुसार विद्याधरीने भी वह उन्हें प्रणामपूर्वक दे दी । उसे लेकर ऋषिने अपने शिरके ऊार डाल लिया और फिर पृथिवीपर विचरण करने लये। इस बीच उन्होंने ऐरावत हाथीपर चढकर देवोंके साथ आते हुए तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्रको देखा । तब उक्त दुर्वासा ऋषिने उस मालाको अपने शिरपरसे निकालकर इन्द्रके ऊपर फेंक दी । इन्द्रने भी उसे लेकर ऐरावतके शिरपर डाल दिया । । उस हाथीने भी उसे सूंढसे सूंघकर पृथिवीतलपर डाल दिया । यह देख ऋषिराजको इन्द्रपर बहुत क्रोध हुआ । वे बोले- अरे दुष्ट इन्द्र ! तू ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हुआ है । इसीलिये तूने मेरी दी हुई मालाको लेकर आभार मानना तो दूर ही रहा, उसको तिरस्कृत भी किया है। इससे तेरी वह तीनों लोकोंकी लक्ष्मी नष्ट हो जावेगी । हे इन्द्र ! तू मुझे अन्य ब्राह्मणोंके सदृश ही समझता है । इसीलिये तूने मेरा अपमान किया । चूंकि तूने मेरी मालाको योंही फेंक दिया है, इसीलिये