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आत्मानुशासनम् [श्लो० ११३द्रविणपवनप्राध्मातानां सुखं किमिहेश्यते किमपि किमयं कामव्याधः खलीकुरुते खलः । चरणमपि किं स्प्रष्टुं शक्ताः पराभवपांसवः वदत तपसोऽप्यन्यन्मान्यं समोहितसाधनम् ॥ ११३ ॥
नि:श्रेयसार्थिनां तपसो नान्यद्वाञ्छितफलप्रदमित्याह-- द्रविणेत्यादि । प्राध्मातानां मोटितानाम् । इह अस्मिस्तपसि सति लोके वा । खलीकुरुते अखलम् अदुष्टाचरणं हलं दुष्टाचरणं कुरुते खलीकुरुते । पराभवपांसवः पराभवो मानखण्डना स एव पांसवो धूलयः मान्यं पूज्यम् ॥ ११३ ॥ एवं.
मोक्षसुखको देनेवाला है, तथा अपने मनके अतिरिक्त अन्य किसी भी कारणकी अपेक्षा भी नहीं रखता है तब विवेकी जनोंका यह कर्तव्य है कि वे उस कष्टरहित जिनचरणोंका ध्यान अवश्य करें ॥ ११२॥ धनरूप वायु (तृष्णा) से मर्दित (संतप्त) प्राणियोंको भला कौन-सा सुख हो सकता है ? कुछ भी नहीं । अर्थात् जो सुख तपश्चरणसे प्राप्त होता है वह सुख धनाभिलाषी प्राणियोंको कभी नहीं प्राप्त हो सकता है । उस तपके होते हुए क्या यह कामरूप दुष्ट व्याध (भील) किसी प्रकारका दुष्ट आचरण कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है । इसके अतिरिक्त उक्त तपके होनेपर क्या तिरस्काररूप धूलि तपस्वीके चरणको भी छूनेके लिये समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती। हे भव्यप्राणियो! यदि तपसे दूसरा कोई अभीष्ट सुखका साधक हो तो उसे बतलाओ। अभिप्राय यह कि यदि प्राणीके मनोरथको कोई सिद्ध कर सकता है तो वह केवल तप ही है, उसको छोडकर दूसरा कोई भी प्राणीके मनोरथको पूर्ण करनेवाला नहीं है ॥ ११३ ॥ जिस तपके प्रभावसे प्राणी इस लोकमें क्रोधादिकषायोंरूप स्वाभाविक शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है तथा जिन गुणोंको वह अपने प्राणोंसे भी अधिक चाहता है वे गुण उसे प्राप्त हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त तपके प्रभावसे परलोकमें उसे मोक्षरूप पुरुषार्थको सिद्धि स्वयं ही शीघ्रतासे प्राप्त होती है। इस प्रकारसे जो तप प्राणियोंक