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तपस्विनों प्रशंसा
इहैव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपाविकान् गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाञ्छति । पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात्स्वयं यायिनी नरो न रमते कयं तपसि तापसंहारिणि ॥११४॥ तपोवल्ल्यां देहः समुपचितपुण्योजितफल: शलाट्वग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलितः।
विधे तपसि वर्तमानः किं करोतीत्याह- इहैवेत्यादि । इहैव उक्तप्रकार एवं तपसि स्थितः । सहजान् रिपून् सहभुवः शत्रून् । प्रकोपादिकान् प्रकृष्टकोपादीन् । परिणमन्ति प्रादुर्भवन्ति । असुभिरपि प्राणैरपि । पुरश्चाने पुरुषार्यसिद्धि: मोक्षसिद्धिः । अचिरात् संक्षेपण । स्वयं यायिनी स्वयम् अग्रेसरी । तापसंहारिणि संसारदुःखस्फेटके ॥ ११४ ॥ तपसि रतिं कुर्वाणश्चायुर्देहयोरित्यं य: सफलतां कुरुते तं श्लाघयभाह- तपोवल्यामित्यादि । समुपचितपुण्योजितफल: समुपचितं पुष्टि नोतं पुण्यमेव ऊजितं महत्फलं येन देहेन । शलाट्वग्रे कोमलफलाने सति पुष्पमपगच्छति यस्मात्कलात्तत् शलाटुः शलेरटुः । प्रसव इव पुष्पमिव ।
संतापको दूर करता है उसके विषय में मनुष्य कैसे नहीं रमता है? अर्थात् रमना ही चाहिये । विशेषार्थ-यहां यह बतलाय गया है कि वह तप प्राणीके लिये उभय लोकों में ही हितकारक है। इस लोकमें तो वह इसलिये हितकारक है कि जो क्रोध आदि कषायें अनादि कालसें प्राणीका अहित कर रही हैं उनको वह तप नष्ट कर देता है । कारण यह है कि जबर्तक क्रोधादि कषायें जागृत रहती हैं तबतक वह इच्छानिरोधात्मक तप संभव ही नहीं है । इसके अतिरिक्त वह तर इसी लोकमें क्षमा,शांति एवं विशिष्ट ऋद्धि आदि दुर्लभ गुगों को भी प्राप्त कराता है। वह चूंकि परलोकमें मोक्ष पुरुषार्यको सिद्ध कराता है अतएव वह परलोकमें भी हितका साधक है । इस प्रकार विचार करके जो विवेकी जीव हैं वे उभय लोकके संतापको दूर करनेवाले उस तपमें अवश्य प्रवृत्त होते हैं ॥११४॥ जिसका शरीर तपरूप बेलिके ऊपर पुण्यरूप महान् फलको उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकारसे नष्ट हो जाता है जिस प्रकार कि कच्चे फलके अग्रभागसे फूल नष्ट हो जाता है,तथा जिसकी आयु सन्यासरूप अग्निमें दूधकी