________________
११०
मात्मानुशासनम्
श्लो० ११५
व्यशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपयः स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११५॥ अमी प्ररूढवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत्
तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥११६॥ आयुष्यं च व्यशुष्यत् आयुरेव आयुष्यम्, स्वार्य यः । व्यशुष्यत् । क्व । संन्यासाहुतभुजि संन्यासाग्नी । पयः दुग्धम् । कथं व्यशुष्यत् । समाधानचरमं यथा भवति । समाधानं समाधि: ध्यानं चरमम् अन्यधर्मशुक्लरूपं यत्र ।। ११५ ॥ परमवैराग्योपतानाम् अशुचौ दुःखदे देहे प्रतिपालनम् अवस्थानं च कृत्वा तपः कुर्वतां कारणं श्लोकद्वयमाहृ- अमी इत्यादि । प्ररूढवैराग्या अपि प्ररूढम् उत्पन्न प्रकर्ष प्राप्तं वा वैराग्यं येषाम् । तनुम् अनुपाल्य शरीरं प्रतिपाल्य । ते तपस्यन्ति तपः कुर्वन्ति । वैभवं प्रभुत्वम् ॥ ११६ ।। क्षणाधंमित्यादि । बतिस्तोक--
रक्षा करनेवाले जलके समान धर्म और शुक्ल ध्यानरूप समाधिकी रक्षा करते हुए सूख जाती है वह धन्य है-प्रशंसनीय है ॥ विशेषार्य--जिंस प्रकार लतामें उत्पन्न हुआ फूल फलको उत्पन्न करके उस कच्चे फलके अग्रभागसे स्वयं नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिसका शरीर तपश्चरणके द्वारा महान् पुण्यको उत्पन्न करके तत्पश्चात् स्वयं नष्ट हो जाता है तथा जिस प्रकार आगपर रखे हुए दूधर्म रहनेवाला पानी स्वयं जलता है, परंतु वह दूधकी रक्षा करता है; उसी प्रकार जिस महा पुरुषको आयु ध्यानरूप अग्निमें स्वयं शुष्क होती है, परंतु धर्म एवं शुक्लरूप ध्यानको रक्षा करती है वह महात्मा सराहनीय है-- उसीका मनुष्यजन्म पाना सफल है ॥११५॥ जिनके हृदयमें विरक्ति उत्पन्न हुई है वे शरीरकी रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते हैं वह निश्चयसे ज्ञानका ही प्रभाव है, ऐसा निश्चित प्रतीत होता है । विशेषार्थ-- लोकमें प्रायः यह देखा जाता है कि जो जिसकी ओरसे विरक्त या उदासीन होता है वह उसका रक्षण नहीं करता है । परन्तु विवेकी जन शरीरकी ओरसे उदासीन (अनुरागरहित) हो करके भी यथायोग्य प्राप्त हुए आहारके द्वारा उसका रक्षण करते हैं। इसका कारण रह है कि वे यह जानते