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-११२] समाधेः सुकरत्वम्
१०७ साध्यं सिद्धिसुखं कियान परिमितः कालो मनः साधनं सम्यक्चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किं वा समाधौ बुधाः॥११२॥
पादपूरण' इति वचनात् । साध्यं फलम् । दिव्यवर्षसहस्रकोटिपरिमितकालसाध्यत्वात् समाधेः दुःशक्यतेत्याशझ्याह कियान् परिमितः कालः । समाधेरन्तर्मुहूर्तादिः । कियान् कतिपयः परिमितः स्तोक एव काल: । कस्तत्रोपाय इत्याह-- मनः साधनम् । विधुरं कष्टं विफलं वा । किं वा न किमपि ॥ ११२ ।।
अभिलाषी हैं उन्हें सर्वज्ञ वीतराग परमात्माका ध्यान करना चाहिये । उसका ध्यान करनेसे ध्याता स्वयं भी परमात्मा बन जाता है । जैसे कि आचार्य कुमुदचन्द्रने भी कहा है- " ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुफ्लभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥" अर्थात् हे जिनेन्द्र ! आपके ध्यानसे भव्यजीव क्षणभरमें ही इस शरीरको छोडकर परमात्मा अवस्थाको इस प्रकारसे प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि धातुभेद (सुवर्णपाषाण) तीव्र अग्निके संयोगसे पत्थरके स्वरूपको छोडकर शीघ्र ही सुवर्णरूपताको प्राप्त हो जाते हैं ॥ कल्याण. १५. यहां उस ध्यानकी उपादेयताको बतलाते हुए यह भी निर्देश कर दिया है कि उस ध्यानके करनेमें न तो कुछ क्लेश है और न किसी प्रकारकी हानि भी है। उसमें यदि कुछ क्लेश है तो वह केवल जिनचरणोंके स्मरणरूप ही है जो नगण्य है, तथा उससे जो हानि होनेवाली है वह है कर्मोंको हानि, सो वह सबको अभीष्ट ही है। वह निरर्थक या अनिष्ट फलदायक भी नहीं है, बल्कि इष्ट फलप्रद (मोक्षसुखदायक) ही है। उसमें बहुत अधिक समय भी नहीं लगता है- उसका समय अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तपरिमित है । इसके अतिरिक्त उसके लिये विशेष साधनसामजीकी भी आवश्यकता नहीं होती, वह केवल अपने मनकी एकाग्रतासे ही होता है । इस प्रकार जब वह ध्यान सब प्रकारके क्लेश एवं हानिसे रहित है, परिमित समय में ही अभीष्ट