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आत्मानुशासनम् [श्लो० ११२आराध्यो भगवान् जगत्त्रयगुरुवृत्तिः सतां संमता क्लेशस्तच्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् ।
समाधिरूपस्य तपसो विषयफलादिकं प्रदर्शयन्नाह- आराध्य इत्यादि । आराध्यः समाधिविषयः । भगवान् परमज्ञानसंपन्नः इन्द्रादीनां पूज्यो वा परमात्मा । वृत्ति: भगवदाराधने प्रवृत्तिः अभिमुखता। सतां सत्पुरुषाणां संमता अभिप्रेता उत्तमपुरष विषयत्वात् । प्रप्रक्षयः प्रक्षयः पादपूरणे प्रसिद्धत्वम्, 'प्रोपात्समां
उसे तपश्चरणमें लगाना ठीक है, न कि उसके पूर्व में। इस शंकाके परिहार. स्वरूप ही यहां यह बतलाया है कि मृत्यु कब प्राप्त होगी, यह किसीको विदित नहीं हो सकता है । कारण कि देव-नारकियोंके समान मनुष्योंमें उसका समय नियत नहीं है-- वह वृद्धावस्थामें भी आ सकती है और उसके पूर्व बाल्यावस्था या युवावस्थामें भी आ सकती है। इसके अतिरिक्त जहां देवों और नारकियोंकी आयु अकालमृत्युसे रहित होकर तेतीस सागरोपमतक होती है वहां मनुष्योंकी आयु अधिकसे अधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण ही हो सकती है । अतएव अच्छा यही है कि सौभाग्यसे यदि वह मनुष्य पर्याय प्राप्त हो गई है तो जल्दीसे जल्दी उससे प्राप्त करने योग्य रत्नत्रयको प्राप्त कर लें, अन्यथा उसके व्यर्थ नष्ट हो जानेपर फिरसे उसे प्राप्त करना अशक्य होगा ॥ १११ ॥ ध्यानमें तीनों लोकोंका स्वामी परमात्मा आराधना करनेके योग्य है । इस प्रकारकी प्रवृत्ति सज्जनोंको अभीष्ट है। उसमें यदि कुछ कष्ट है तो केवल भगवान्के चरणोंका स्मरण ही है। उससे जो हानि भी होती है वह अनिष्ट कर्मोंकी ही हानि (नाश) होती है । उससे सिद्ध करनेके योग्य मोक्षसुख है। उसमें काल भी कितना लगता है ? अर्थात् कुछ विशेष काल नहीं लगता- अन्तर्मुहूर्त मात्र ही लगता है । उसका साधन (कारण) मन है । अतएव हे विद्वानो! चित्तमें उस परमात्माका भले प्रकार विचार कीजिये, क्योंकि, उसके ध्यानमें कष्ट ही क्या है ? कुछ भी नहीं है ।। विशेषार्थ- यहां यह बतलाया गया है कि जो भव्य जीव मोक्षसुखके