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आत्मानुशासनम्
'चित्तस्थमप्यनवबुध्य हरेण जाडय़ात् ' आदि श्लोक ( २१६ ) का अर्थ इस प्रकार लिखा है- देषौ काम तौ चित्तविषै हुता, बाह्य ण हुता, अर काहू क्रोधकरि काम जानि कोउ बाह्य पदार्थ भस्म किया, सो काम न मुवा । कामके योगते सराग अवस्थाकूं प्राप्त भया । कामकी करी घोर वेदना सही। इस अर्थ में उन्होंने ' हरेण' का अर्थ सीधा महादेव न करके 'काहूने' के रूपमें किया है तथा भावार्थ में भी इसी शब्द का उपयोग किया है ।
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यशो मारीचीयं' आदि श्लोक ( २२० ) के अर्थमें उन्होंने 'स कृष्णः कृष्णोऽभूत् कपटबटुवेषेण नितराम्' इस तृतीय चरणका अर्थ सर्वथा छोड दिया है । भावार्थ में भी उन्होंने केवल इतना ही लिखा है- मायाचार महादुराचार है । मारीच मंत्री लघुताको प्राप्त भया, राजा युधिष्ठिर सरिषा 'अश्वत्थामा हतः' या वचन कहिवेकरि लज्याकौ प्राप्त भये । यहां इतना स्मरण रखना चाहिये कि पं. टोडरमलजी अपनी पद्धति के अनुसार यथासम्भव प्रत्येक श्लोकके भावको पूर्णतया स्पष्ट करते हैं । परन्तु यहां वह स्पष्ट नहीं किया गया है। इसका कारण उनकी इन कथानकोंसे असहमतिके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं प्रतीत होता । मारीचकी कथाका वह प्रसंग श्री रविषेणाचार्यविरचित पद्मपुराणसे सर्वथा भिन्न है ।
ऐसे कुछ स्थलोंको छोडकर अन्य सर्वत्र यह टीका ग्रन्थके भावको हृदयंगम करने में पर्याप्त सहायता करती है ।
२. दूसरी टीका शोलापुरकें प्रसिद्ध विद्वान् स्व. पं. बंशीधरजी शास्त्रीके द्वारा लिखी गई है। यह टीका प्रायः भावप्रधान व कु छ विस्तृत भी है । परन्तु उससे मूल ग्रन्थका शाब्दिक अर्थ शीघ्रता से अवगत नहीं होता । यह टीका जैन ग्रन्थरत्नाकर बम्बईसे प्रकाशित ( फर्वरी १९१६ ) हो चुकीं है । लिखते समय इस टीकाकी पुस्तक न रहनेसे उसके सम्बन्ध में विशेष नहीं लिखा जा सका है ।
३. उपर्युक्त दो हिन्दी टीकाओं के अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थपर एक मराठी टीका भी उपलब्ध है । यह टीका स्थानीय जैन संस्कृति संरक्षक संघ - जिसके द्वारा यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है- संस्थापक स्व. ब्र.